जैसलमेर के इस शख्स को पुरखों के हुनर ने दिलाई पहचान,अब विदेशों में भी कद्रदान
पुरखों से विरासज में मिली कला को उन्होंने शौक से सीखा और विशेष अवसरों पर प्रस्तुत की जाने वाली इस कला की कद्रदान अब दुनिया है।
जैसलमेर के इस शख्स को पुरखों के हुनर ने दिलाई पहचान,अब विदेशों में भी कद्रदान
जैसलमेर. पुरखों से विरासज में मिली कला को उन्होंने शौक से सीखा और विशेष अवसरों पर प्रस्तुत की जाने वाली इस कला की कद्रदान अब दुनिया है। सरहद पर बसे खूबसूरत जिले जैसलमेर की सुंदरता किसी से छिपी नहीं है, वहीं यहां की कला व लोक संस्कृति भी विश्व भर में अपनी पहचान रखती है। अलगोजा वादन भी ऐसी ही एक कला है। जैसलमेर से 7 किमी दूर मूलसागर में रहते है तगाराम भील, जो कि अलगोजा बजाने में उन्हे महारत हासिल है। वे अपनी इस कला को अपने परिवार से लीञ इनके पिता टोपणराम भी अलगोजा बजाते थे। इन्होंने बचपन में अपने पिता का अलगोजा चोरी चुपके ले जाकर जंगलों में बजाते थे। जब वे भेड़-बकरिया चराने जाते, तब भी अलगोजे को घर से चुपचाप उठा के ले जाते थे और उसे बजाने का अभ्यास करते है। इस प्रकार अभ्यास करते करते अपने पिता के सानिध्य में उन्होने अलगोजा बजाने में महारत हासिल कर ली। आज अलगोजा वादन में तगाराम भील की दुनिया भर में पहचान है। उन्होंने विश्व के कई देशों का भ्रमण किया है और अपनी कला का जादू बिखेरा है। अमेरिका व यूरोप के करीब 15 देश, रुस जापान, अरब, अफ्रीका, जर्मनी, फ्रांस आदि कई देशों में अपनी प्रस्तुतियां दे चुके है। इसके अलावा भी शादी ब्याह आदि में भी इसको बजाया जाता है। ये शादी समारोह व भजन संध्या में भी जाते है, अपनी प्रस्तुतियां देते है।
अलगोजा कई वर्षों पुराना जैसलमेर का वाद्य यंत्र है। तगाराम के दादा भी इसे बजाते थे। तगाराम खुद 40 वर्षों से इसे बजा रहे है। वे बताते हैं कि जब से लोगों ने पशुपालन करना शुरू किया तबसे इस वाद्य यंत्र को उपयोग में लाया जा रहा है। पूर्व मेें ज्यादातर चरवाहे इसे अपने मनोरंजन के लिए बनाते थे और बजाते थे। इसके तगाराम स्वयं भी अलगोजे बनाते हैं और इसको बजाना सिखाते भी है। कई लोग इनसे सीखते है। विदेशी पर्यटक भी इनके पास सीखने आते है। तगाराम अलगोजे के साथ साथ बांसुरी भी बजाते है।