जालोर का पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बालोतरा के भरोसे!
1300 से अधिक ग्रेनाइट इकाइयां है जालोर शहर में, इनसे बढ़ी तादाद में निकलती है स्लरी, पर्यावरण प्रदूषण का खतरा सता रहा, कई तरह की बीमारियों का अंदेशा, लेकिन संबंधित महकमा जालोर में नहीं
1300 से अधिक ग्रेनाइट इकाइयां है जालोर शहर में, इनसे बढ़ी तादाद में निकलती है स्लरी, पर्यावरण प्रदूषण का खतरा सता रहा, कई तरह की बीमारियों का अंदेशा, लेकिन संबंधित महकमा जालोर में नहीं
जालोर. अपनी चमक से प्रभावित करने वाला जालोर का ग्रेनाइट उद्योग किसी न किसी रूप में भविष्य में जालोर की जनता के लिए घातक दुष्परिणामों का कारण बन सकता है। ग्रेनाइट तैयार करने में बड़ी तादाद में स्लरी निकलती है, जिससे पर्यावरण प्रदूषण का अंदेशा है, लेकिन इसके बावजूद जालोर में इन हालातों पर निगरानी के लिए प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय तक नहीं है। जालोर की निगरानी बालोतरा के अधिकारियों पर है, जो कतेई ठीक नहीं ठहराई जा सकती। देश ही नहीं विदेशों तक जालोर का ग्रेनाइट पहुंचता है, लेकिन इस ग्रेनाइट को तैयार करने के लिए विभिन्न स्तर की प्रक्रिया है। अंतिम स्तर की प्रक्रिया पॉलिशिंग की है। इस पूरी प्रक्रिया में भारी मात्रा में स्लरी निकलती है। स्लरी पत्थर का बुरादा है। इस स्लरी के स्टॉक के लिए दो रीको क्षेत्रों में दो डंपिंग यार्ड बने हैं, जिसमें स्लरी का स्टॉक किया जाता है। लेकिन यह किसी भी रूप में पर्याप्त नहीं है। अक्सर ग्रेनाइट से निकलने वाली स्लरी को खाली पड़े खेतों, सड़कों के किनारे पर डाल दिया जाता है, जिससे कई मौकों पर खेत मालिक भी परेशान होते हैं। स्लरी की परत जमा होने पर जमीन अनुपजाऊ भी होती है। लेकिन इस पूरी नजरअंदाजी और मनमर्जी पर नकेल कसने को जालोर में कार्यालय ही नहीं है।
चार दशक में नहीं खुला कार्यालय
जालोर में ग्रेनाइट उद्योग 90 के दशक की शुरुआत में स्थापित होने लगा। उस समय छोटे स्तर पर काम शुरू हुआ और छोटी साइज में ही ग्रेनाइट तैयार होता था। उस समय स्लरी की समस्या अधिक नहीं थी, लेकिन धीरे धीरे ग्रेनाइट इकाइयों की संख्या में इजाफा होता गया और वर्तमान में इकाइयां 1300 से 1500 के बीच है और इनसे बड़ी मात्रा में स्लरी निकलती है। इसके बाद औद्योगिक क्षेत्र तृतीय चरण में डंपिंग यार्ड में इसे डाला जाता है। यहां एक पहाड़ सा बन गया है। अक्सर गर्मी के मौसम में तेज हवा के साथ यह स्लरी उड़कर आस पास के खेतों तक भी पहुंच रही है, जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति प्रभावित हो रही है। दूसरी तरफ इसके लगातार प्रभाव श्वास, चर्म रोग भी हो रहे हैं। खास बात यह है जालोर के लिए यह बड़ा मसला है, लेकिन इसके बाद भी चार दशक की समयावधि गुजरने के बाद अब तक यहां स्थायी कार्यालय नहीं है। इस समस्या की तरफ जनप्रतिनिधियों का भी ध्यान नहीं गया है।
अभी प्रक्रिया प्रारंभिक चरण में, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं
करीब पांच साल पूर्व ग्रेनाइट से निकलने वाली स्लरी को सिरेमिक टाइल्स में उपयोगी माना गया है। अब यहां से स्लरी ट्रकों में लोड होकर मोरबी (गुजरात) समेत इस उद्योग से जुड़े अन्य स्थानों तक पहुंचती है। इसके अलावा ब्रिक्स व पेनल निर्माण भी इसका उपयोग हो रहा है, जिससे स्लरी के स्टॉक में कुछ कमी जरुर आ रही है और भविष्य में स्लरी के नए स्टॉक में कमी आएगी, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि स्लरी जालोर शहर के लिए एक प्रमुख समस्या है। इनके मनमर्जी से डालने पर नियंत्रण की जरुरत है। यही नहीं भविष्य में इन हालातों को नियंत्रित करने और निगरानी के लिए यहां कार्यालय भी खुलना चाहिए।
दो जिलों को मिल सकता है फायदा
जालोर जिले में प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय बालोतरा के अंतर्गत आता है। बालोतरा से जालोर की दूरी लगभग 100 किलोमीटर है। ऐसे में सही और सटीक निगरानी मुश्किल होती है। इसी तरह पड़ौसी जिले सिरोही में भी प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय न हीं हैं। यहां कार्यालय पाली के अंतर्गत आता है। सिरोही से पाली की दूरी भी 100 किमी से अधिक है। ऐसे में यदि जालोर में प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय स्थापित किया जाता है तो दोनों जिलों को फायदा होगा। मामले में खास बात यह है कि जालोर-सिरोही संसदीय क्षेत्र एक ही है। इसलिए प्रशासनिक स्तर के साथ साथ राजनीतिक स्तर पर सामूहिक प्रयास की जरुरत है।
इनका कहना
जालोर की स्लरी का अब सिरेमिक टाइल्स में उपयोग होने लगा है। यहां से स्लरी का धीरे धीरे निस्तारण होने लगा है। भविष्य में पूरी तरह से समस्या का समाधान हो जाएगा।
– लालसिंह धानपुर, अध्यक्ष, ग्रेनाइट एसोसिएशन, जालोर
बालोतरा के अंतर्गत बाड़मेर और जालोर जिले आते है। दोनों जिलों में औद्योगिक क्षेत्र से संबंधित निगरानी और उन पर कार्रवाई का क्षेत्राधिकारी रहता है।
– अमित जोयल, प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय, क्षेत्रीय प्रबंधक, बालोतरा
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