…तब नवरात्रि में मुफ्त में रामलीला का मंचन करने आते थे यूपी के कलाकार
जालोर में सबसे पहले एकमात्र चामुण्डा माता मंदिर में होता था गांव का गरबा
जालोर. सालों पहले जालोर सहित जिले के विभिन्न गांवों और कस्बों में नवरात्रि से लेकर रावण दहन तक होने वाले विभिन्न आयोजन अब यादों में सिमट कर रह गए हैं। शहर ही नहीं, बल्कि गांवों के आम चौहटे पर होने वाला एकमात्र गरबा अब आधुनिकता की होड़ में धीरे-धीरे पाश्चात्य संस्कृति की ओर रुख करने लगे हैं। शहरों, कस्बों और गांवों के करीब-करीब हर तीसरे से चौथे मौहल्ले में गुजराती गरबों की धुन सुनाई पड़ती है। देवी-देवताओं की वेशभूषा में होने वाला गांव का गरबा आज के युवाओं को रास ही नहीं आ रहा है। जबकि तीन दशक पहले ३६ कौम के लोग एक ही साथ एक ही जगह इक_ा होकर नवरात्रि का त्यौहार मनाया करते थे। जालोर की बात करें तो यहां भी नौ दिन तक चलने वाली रामलीला में यूपी के कलाकारों का नाट्य मंचन देखने बड़े-बूढ़े, बच्चे व महिलाएं भी पहुंचती थी, लेकिन पिछले तीस साल से शहर तो दूर जिले में कहीं भी ऐसा आयोजन देखने को नहीं मिल रहा है। हर तरफ गुजराती गरबों और डांडिया रास का आयोजन हो रहा है।
ऐसे जालोर में शुरू हुआ था पहला गरबा
वैसे तो शहर में सबसे पहले गरबों का आयोजन सालों पुराने चामुण्डा माता मंदिर से शुरू हुआ, लेकिन शहर के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं इससे पहले करीब 80 के दशक तक सूरजपोल के बाहर तिराहे पर नवरात्रि के नौ दिन तक शहरवासियों की ओर से अखंड हरिकीर्तन का आयोजन किया जाता था। यह कीर्तन 24 घंटे अनवरत चला करता था। इसमें हर समाज की उपस्थिति दर्ज हुआ करती और अंतिम दिन यहां छोटे स्तर पर गरबा का आयोजन होता। धीरे-धीरे गरबा में शहरवासियों और आस पास के गांवों से लोगों की अच्छी खासी भीड़ जुटने लगी। इसके बाद से चामुण्डा माता मंदिर में गरबों का आयोजन शुरू हुआ। यहां नौ दिन तक मेले सा माहौल रहता और गरबों के साथ नाटक मंचन व हास्य कार्यक्रम भी हुआ करते थे।
‘सीदेÓ के बदले रामलीला का मंचन
वर्ष १९७०-७५ तक शहर के वीरमदेव चौक में यूपी के कलाकार रामलीला का मंचन किया करते थे। रामलीला में अभिनय करने वाले पुरुष पात्र किसी तरह का शुल्क नहीं लेते थे, लेकिन इसके आयोजन के बदले शहरवासी उन्हें इच्छानुसार ‘सीदाÓ (घी, आटा, गुड़, तेल व मसाले के साथ अन्य सामग्री) दिया करते। जिससे वे अपनी आजीविका चलाया करते। रामलीला के आयोजन के लिए मंच की साज सज्जा और अन्य कामकाज कलाकार ही किया करते। इसके बाद १९८५ तक जैन न्याती नोहरा में रामलीला का आयोजन होने लगा। जहां आने वाले प्रति दर्शक से एक रुपए शुल्क लिया जाता। फिर भी यहां काफी संख्या में शहरवासी पहुंचकर रामलीला मंचन का लुत्फ उठाते।
सबसे पहले होदड़ी नाड़ी में रावण दहन
नौ दिन तक गरबों के आयोजन के बाद दशहरे के दिन सबसे पहले शहर स्थित होदड़ी नाड़ी में रावण दहन किया गया। जिसे देखने शहरवासियों के अलावा आस पास के गांवों के लोग बैलगाड़ी और अन्य साधनों से यहां पहुंचा करते थे। उस समय रावण का पुतला साधारण ही होता था और इसकी ऊंचाई भी २० से २५ फीट तक होती थी। वहीं तब शहर चार पोलों के बीच परकोटे में बसा हुआ था। धीरे-धीरे आबादी बढ़ी तो रावण दहन तिलक द्वार के पास होने लगा। इसके बाद रोडवेज डिपो के बाहर रावण चौक और मौजूदा समय में स्टेडियम मैदान में रावण के पुतले का दहन किया जाता है।
चातुर्मास से नवरात्रि तक संगीतमयी रामायण
शहर के मौजीज लोगों के अनुसार करीब ४३ वर्ष पहले शहर के पुरा मोहल्ला चौक और राजमंदिर के सामने मेड़ता के कथावाचक परशुराम की वाणी में संगीतमयी रामायण का पाठ हुआ करता था। उनकी ओर से ‘राधेश्याम रामायणÓ का पाठ किया जाता था जो सरल भाषी होने से सहज ही हर किसी की समझ में आ जाता था। संगीत के लिए हारमोनियम, ढोलक और झांझर का प्रयोग होता था। रामायण पाठ के दौरान शहर के बड़े-बुजुर्ग, बच्चे और महिला-पुरुष भी काफी संख्या में यहां पहुंचते थे।
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