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ELECTION SPECIAL:सीधे ग्राउंड से…त्रिकोणीय मुकाबले ने कठिन की पीएमओ में राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह की डगर

जितेंद्र सिंह केंद्र सरकार में मंत्री रहे पर क्षेत्र में नहीं आने को मुद्या बनाकर विपक्ष उन्हें घेर रहा है…
 

जम्मूApr 05, 2019 / 09:34 pm

Prateek

jitendra singh file photo

jitendra singh file photo

(जम्मू,योगेश कुमार): प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में केंद्रीय राज्य मंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उधमपुर से उम्मीदवार जितेन्द्र सिंह कॉंग्रेस के उम्मीदवार विक्रमादित्य सिंह और भाजपा के बागी नेता चौधरी लाल सिंह के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में फंसे दिखाई दे रहे हैं। जितेंन्द्र सिंह दूसरी बार उधमपुर-कठुआ-डोडा से चुनाव लड़ रहे हैं। 2014 में उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता गुलाम नबी आज़ाद को लगभग 60 हज़ार वोटो के अंतर से हराया था। उन्हें कुल 4,87,369 वोट मिल थे, जबकि आज़ाद को 4,26,393 वोट मिले थे। हालांकि इस बार फाइट कहीं ज्यादा टफ दिखाई दे रही है। यही कारण है कि भाजपा प्रत्याशी जहां नरेंद्र मोदी के सहारे अधिक हैं, वहीं विपक्ष उनके केंद्रीय राज्य मंत्री होते हुए चुनाव क्षेत्र के लोगो से संपर्क में न होने को चुनावी मुद्दा बना रहा है। उन पर पिछले साल कठुआ मे हुए बहुचर्चित बलात्कार और हत्या के मामले में जम्मू के पक्ष को ठीक से नहीं रख पाने का भी आरोप लगा। लोगों का मानना है कि जितेन्द्र सिंह केंद्र सरकार के समक्ष सीबीआई जांच की मांग को प्रस्तुत करने में विफल रहे।

 

इजरायल के बराबर है उधमपुर लोस सीट का क्षेत्रफल

जम्मू-कश्मीर की उधमपुर लोकसभा सीट का क्षेत्रफल लगभग 20770 वर्ग किलोमीटर है जो इजरायल देश के बराबर है। इस संसदीय सीट में कुल 16,47,403 मतदाता हैं। इस संसदीय सीट के तहत छह जिलों की 17 विधानसभा सीटें आती हैं। जो छह जिले इस संसदीय सीटे के तहत आते हैं, उनमें कठुआ, किश्तवाड़, रामबन, डोडा, रियासी व उधमपुर शामिल हैं। जो विधानसभा सीटें इसमें शामिल हैं, उनमें किश्तवाड़, इंद्रवाल, डोडा, भद्रवाह, रामबन, बनिहाल, गुलाबगढ़, रियासी, गूल, अरनास, चिनैनी, रामनगर, बनी, बसोहली, कठुआ, बिलावर व हीरानगर शामिल हैं।

 

लाल सिंह डोगरा स्वाभिमान संगठन के साथ बिगाड़ रहे खेल

पिछले साल कठुआ मे हुए बलात्कार और हत्या मामले के बाद भारतीय जनता पार्टी से अलग हुए चौधरी लाल सिंह ने अपनी पार्टी डोगरा स्वाभिमान संगठन गठित कर चुनाव मैदान में उतरने का निर्णय लिया। चौधरी लाल सिंह वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस पार्टी से इस क्षेत्र के सांसद रहे हैं, परंतु कांग्रेस ने 2014 मे दिग्गज नेता गुलाम नबी आज़ाद को उम्मीदवार बनाया, तो लाल सिंह नाराज हो गए। उन्होंने आज़ाद के लिए कोई प्रचार तक नही किया। इस बार भी लाल सिंह भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में सक्षम दिख रहे हैं। लोगों मे अपने बेबाक अंदाज़ में बात करने के चलते वे लोकप्रिय हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की सरकार में बहुत लोकप्रिय स्वास्थ्य मंत्री थे। लाल सिंह का इस चुनाव क्षेत्र में बहुत प्रभाव माना जाता है।

 

कांग्रेस ने खेला राजघराने पर दांव

कांग्रेस पार्टी ने अपना दांव विक्रमादित्य सिंह पर खेला है। विक्रमादित्य सिंह जम्मू-कश्मीर के राजघराने से ताल्लुक रखते हैं। वह राज्य के अंतिम राजा महाराज हरि सिंह के पोते हैं, जिन्होंने भारत के विलय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। यह विक्रमादित्य का पहला चुनाव है, परंतु उनके पिता दिग्गज कांग्रेसी नेता कर्ण सिंह यहां से चार बार सांसद रह चुके हैं। विक्रमादित्य सिंह अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और नई ऊर्जा के साथ मैदान में उतरे हैं। वे गुलाम नबी आज़ाद के पैतृक क्षेत्र के मुस्लिम वोटों के सहारे भाजपा के जितेन्द्र सिंह को पटकनी देने की रणनीति बना रहे हैं। जमीन पर पकड़ के मामले में थोड़ा पिछड़ते दिख रहे विक्रमादित्य को नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का इस सीट से चुनाव में शामिल न होना वरदान साबित हो सकता है।

 

कांग्रेस के प्रभाव वाली सीट

1967 से 2014 तक इस संसदीय सीट पर 12 चुनाव हुए। इनमें से आठ बार कांग्रेस व 4 बार भारतीय जनता पार्टी ने इस पर अपना परचम लहराया है। यहां हमेशा से कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधा मुकाबला रहा है। हालांकि इस बार लाल सिंह त्रिकोण जरूर बनाते दिखाई दे रहे हैं।

 

तीन बार डॉ. कर्ण सिंह व तीन बार चमनलाल बने सांसद

इस संसदीय सीट की जनता के मूड का अनुमान लगाने के लिए हमें 1967 से 2014 तक के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करना होगा। यहां की जनता अपने जनप्रतिनिधि को जल्दी रिजेक्ट नहीं करती। 1967 में पहली बार जम्मू-कश्मीर के पूर्व महाराजा हरी सिंह के पुत्र कर्ण सिंह कांग्रेस के टिकट पर इस सीट से मैदान में उतरे और विजयी रहे। उन्होंने 1971 व 1977 में भी जीत हासिल की। इसके अलावा भाजपा के चमनलाल गुप्ता ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने 1996, 98 व 99 में यहां से जीत दर्ज की। 2014 में यहां से भाजपा के डॉ. जितेंद्र सिंह विजयी हुए, जबकि 2004 व 2009 में कांग्रेस के टिकट पर चौधरी लालसिंह विजयी हुए थे। 2014 के चुनाव में इस सीट पर मतदान 70 प्रतिशत हुआ था।

 

खास-खास मुद्दे

उधमपुर-कठुआ-डोडा सीट के अंतर्गत अधिकतम पहाड़ी इलाक़े आते हैं। लोगों की सब से अधिक कठिनाई खराब सड़को और समय पर उपचार न मिलने को लेकर है। डोडा- बनिहाल, रामनगर, किश्तवार, उधमपुर के कई इलाक़ों में साल भर सड़क सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं। जिला अस्पतालों में उचित स्वास्थ्य सेवा की अनुपलब्धता के कारण मृत्यु दर अधिक रही। पर्यटन विकास, बागवानी क्षेत्रों में विकास, विभिन्न पनबिजली में स्थानीय लोगों का अधिकार, सुरक्षित परिवहन सेवा, मेडिकल कॉलेज, पूर्ण विश्वविद्यालय और अस्पताल अहम मुद्दे हैं।

 

इनका कहना है

पिछले 70 वर्षों से डोडा-किश्तवार में रहने वाले लोगों के जीवन में कोई अंतर नही आया| आज भी बच्चे स्कूल तक पहुंचने के लिए मीलों पैदल चलते हैं। उच्च शिक्षा के लिए शहर छोड़ना पड़ता है। – शकील अहमद, पूर्व सरपंच केहलानी गांव, डोडा

पिछली जम्मू-कश्मीर सरकार ने जम्मू प्रांत के हितों की अनदेखी की। जम्मू के लोगों को अब यह समझ आ गया है कि दिल्ली में आवाज ले जाने ले लिए उन्हें पार्टियों की तुलना में अपना मज़बूत नेता चुनना होगा। – रमण शर्मा, समाज सेवक, हीरानगर

क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देने वाला कोई उम्मीदवार जीतना चाहिए। बात जम्मू और श्रीनगर केन्द्रित होती है, जबकि बहुत से महत्वपूर्ण क्षेत्रों की अनदेखी हुई। पर्यटन मे यह क्षेत्र कश्मीर और स्विटजरलैंड को मात दे सकता है, परंतु किसी ने भी इसके पर्यटन की संभावना पर ध्यान नही दिया। – चौधरी असलम, वरिष्ठ वकील


बालाकोट का भी असर

बालकोट में एयर स्ट्राइक के बाद वोटों का ध्रुवीकरण होता दिखाई दे रहा है। हालांकि इसे लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है। कई लोगों का मानना है कि हमले का इस्तेमाल राजनीतिक दल चुनाव में फायदा लेने के लिए कर सकते हैं। खास बात यह है कि इस एयर स्ट्राइक ने भाजपा को थोड़ी ऊर्जा जरूर दी है, जो पहले पीडीपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने और चलाने के तौर-तरीकों को लेकर सवालों के घेरे में रह चुकी है। खास कर जम्मू रीजन में भाजपा समर्थक अपनी पार्टी की इस रणनीति का समर्थन करते दिखाई नहीं देते थे। पुलवामा के बाद बालाकोट हमले ने राज्य की राजनीति में भी थोड़ी हलचल तो पैदा की है, लेकिन क्या यह हलचल किसी की चुनावी नैया पार कराने में सहायक होगी, यह तो 23 मई के बाद ही पता चलेगा।

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