भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को संतान प्राप्ति, उनके दीर्घायु व सुखमय जीवन की कामना रखकर माताएं हलषष्ठी माता का व्रत रखीं। इस दिन महिलाएं सुबह से दातून कर भैस के दूध का चाय पीकर अपना व्रत रखीं। दोपहर के बाद घर के आंगन, मंदिर या गांव के चौपाल में तालाब बनाकर जल व जीवन का प्रतीक सगरी का निर्माण किया। तालाब के पार में बेर, पलास, गूलर आदि पेड़ों की टहनियों तथा काशी के फूल लगाकर सजाते हुए गौरी-गणेश व कलश रखकर हलषष्ठी देवी की पूजा की।
यह है पौराणिक कथा
इस व्रत के बारे में पौराणिक कथा यह है कि वसुदेव- देवकी के 6 बेटों को एक-एक कर कंस ने कारागार मे मार डाला। जब सातवें बच्चे के जन्म का समय नजदीक आया तो देवर्षि नारद ने देवकी को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दी। देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया, जिसके प्रभाव से उनके आने वाले संतान की रक्षा हुई। हलषष्ठी का पर्व भगवान कृष्ण व भैया बलराम से संबंधित है। हल से कृषि कार्य किया जाता है तथा बलराम का प्रमुख हथियार भी है। बलदाऊ कृषि कर्म को महत्व देते थे, वहीं भगवान कृष्ण गौ पालन को।
छह की संख्या का अनूठा संयोग
इस व्रत-पूजन में छह की संख्या का अधिक महत्व है। जैसे भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठवां दिन, छह प्रकार की भाजी, छह प्रकार के खिलौना, छह प्रकार के अन्न वाला प्रसाद तथा छह कहानी की कथा का संयोग है। पूजन के बाद व्रत करने वाली माताएं जब भोजन के लिए बैठती है, तो उनके भोज्य पदार्थ में पसहर चावल का भात, छह प्रकार के भाजी की सब्जी जिसमें मुनगा, कद्दू, सेमी, तरोई, करेला, मिर्च के साथ भैंस के दूध, दही व घी, सेंधा नमक, महुआ पेड़ के पत्ते का दोना पत्तल व लकड़ी को चम्मच के रूप मे उपयोग किया जाता है। बच्चों को प्रसाद के रूप मे धान की लाई, भुना हुआ महुआ तथा चना, गेहूं, अरहर आदि छह प्रकार के अन्नों को मिलाकर बांटा जाता है।