जबकि आज से डेढ़ दशक पहले तक गांवों में दूर-दराज से बड़े-बड़े दउरा में या बहंगी पर तिलवा, तिलकुट व अन्य सामग्री लेकर आते-जाते असंख्य मजदूर संक्रांति से 10 दिन पूर्व से ही दिखने लगते थे। तब गांव के लोग, मजदूर को दउरा व बारिया लिए देख, बिन बताए भी यह जान लेते थे कि फलां के यहां उनके कुटुम्ब के यहां से खिचड़ी पहुंच चुकी है। वहीं जिनके घर खिचड़ी पहुंचती थी, उन्हें भेंट के रूप में अपने नजदीकी लोगों में बांटना होता था।
नहीं बांटने की स्थिति में लोग उनसे नाराज भी हो जाते थे और अगले दिन इस बात की शिकायत भी प्रत्यक्ष रूप से करते थे। अब वह नजारा लगभग गांवों से गायब है। बुजुर्ग मानते हैं कि डिजीटल इंडिया में अब तमाम संबंध भी एक तरह से डिजीटल होते जा रहे हैं। इसे संबंधों की दूरियां कहें या आधुनिक मानसिकता, अब उसके स्थान पर मोबाइल पर हाय-हेलो के साथ कुछ संदेश एक-दूसरे को सोशल साइट्स के माध्यम से भेज दिए जाते हैं, और एक-दूसरे कुटुम के लिए
मंगल कामना कर ली जाती है।
बुजुर्ग बताते हैं कि तब के समाज में असीमित लगाव होता था। हालांकि तब संचार माध्यमों का अभाव था, फिर भी लोग एक-दूसरे का कुशल-क्षेम जानने के लिए बेकरार रहते थे। बताया कि हमें याद है वह दिन भी, जब बहू भी यदि मकर सक्रांति पर किसी कारण अपने मायके में होती थी, तो उसके ससुराल से खिचड़ी भेजी जाती थी। वहीं यदि बहू अपने ससुराल में होती थी, तो उसके मायके से यह रश्मि निभाई जाती थी।
इस मौके पर बेटी-बहू को चूड़ा-गुड़, तिलवा (लाई) वस्त्र, तिलकुट, मिष्ठान आदि को हर हाल में भेजा जाता था। बिटिया या बहू को भी यह इंतजार रहता था, कि इस मौके पर जरूर कोई उसका अपना, उसके यहां पहुंचेगा, जिससे वह जी भर अपनत्व की भाषा में बातें कर सकेंगी, कितु अब परिवार की परिभाषा ही बदलती जा रही है। गांवों में न बहंगी नजर आ रही, न दूर-दराज के बड़े दउरा सिर पर लिए वह मजदूर।