भारत का राष्ट्रीय पक्षी बने हुए मोर को 61 साल हो गए हैं। सन् 1963 में राष्ट्रीय पक्षी का गौरव हासिल करने वाले मोर की घटती संख्या आजादी के पहले से भी आधी रह गई है। सालों से वन्यजीव से प्रेम करने वाले अथवा वन्य जीवों के लिए कार्य करने वाले लोग मोर की घटती संख्या पर शोर मचाते रहे हैं, लेकिन आज तक उनकी आवाज दबा दी गई लेकिन यह भी सोचनीय हैं कि राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा हासिल होने के बाद भी अब तक देश में कभी मोरों की गिनती के कोई प्रयास नहीं किए गए हैं।
पर्यावरण प्रेमी सोनाली शर्मा का कहना हैं कि मोर प्रत्येक भारतीय की भावना से जुड़ा है। भगवान श्रीकृष्ण से भी मोर पंख जुड़ा हुआ है और राष्ट्रीय पक्षी होने का तात्पर्य है कि राष्ट्रीय धरोहर और यह बात सभी को समझनी होगी। सरकार को सख्ती से मोर संरक्षण के लिए कार्य करने चाहिए और ‘सेवटाइगर‘ की तरह ‘सेवमोर‘ अभियान भी सरकार को चलाना चाहिए।
वन्यजीव प्रेमी सूरज गोस्वामी, कमलेश रैगर बताते हैं कि मोर अपनी खूबसूरती के कारण मारा ही जाता है साथ ही इसके पंखों का व्यवसायिक प्रयोग अवैध शिकार को बढ़ावा दे रहा है। अन्य तमाम जगहों पर मोरों की संख्या में गिरावट पाई गई है। बताया कि भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति आस्था रखने वाले लोग इनका संरक्षण करते हैं। लेकिन निजी स्वार्थ में लोग इनका शिकार करने से परहेज नहीं करते हैं।
पेड़ कट गए, बाग-बगीचे गायब हो गए
- मोर कभी गावों के किनारे खेत, खलिहान और बागों में रहते थे, और यह जंगलों मे भी बड़ी तादाद में पाए जाते थे। गावों के बढ़ते विकास, बदलते परिवेश और आधुनिकीकरण के चलते ग्रामीण क्षेत्रों से बाग बगीचे का सफाया हो गया, जंगलों का विनाश अंधाधुंध किया किया जा रहा है । जंगलों को काटकर खेती की जाने लगी है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि मोरों की दुनिया भी सिमटने लगी है। गांव के किनारे के बाग और विशालकाय पेड़ मोरों के रैन बसेरा हुआ करते थे। पेड़ो के कट जाने और बाग बगीचों का सफाया होने के कारण घोंसला बनाना और अंडा देना उनके लिए मुश्किल भरा काम हो गया है। इसका सीधा असर यह हुआ कि उनकी वंश वृद्धि की रफ्तार में खासी कमी आई है।