105 साल से चली आ रही परम्परा
मंडावा की यह सूखी होली लोगों को पानी बचाने का संदेश देती है। सूखी व फूहड़पन रहित होली की परम्परा सौ साल पुरानी है। वैध लक्ष्मीधर शुक्ल ने होली से अश्लीलता व फूहड़पन को हटाने तथा पानी की बर्बादी को रोकने के उद्देश्य से लगभग 105 साल पहले सहपाठियों के साथ मिलकर श्री सर्वहितैषी व्यायामशाला संस्था का गठन किया था। बाद में उनका यह अभियान रंग लाया और परम्परा में ढल गया।
जुलूस में महिलाओं की होती है समान भागीदारी
होली पर निकलने वाले गैर जुलूस में महिलाओ की भागीदारी रहती है। जुलूस में हर गली-नुक्कड़ पर महिलाए शामिल होती हैं।
ढोल और ताशा बजाने की भी अनूठी परम्परा
मंडावा में होली पर ढ़ोल और ताशा बजाने की भी अनूठी परम्परा है।अखाड़ा में प्रतिदिन सांयकाल से देर रात्री तक ढ़ोल-ताशा बजाए जाते हैं। जो एकादशी, होली की धूलंडी जुलूस में प्राथमिकता से चंग, बांसुरी, नगाड़ों के साथ ढ़ोल ताशा बजते हैं। जुलूस में लक्ष्मीधर शुक्ल की शोभायात्रा के आगे आगे युवक ढ़ोल-ताशा बजाते व नाचते गाते चलते हैं।
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बसंत पंचमी से शुरू होता है कार्यक्रम
बसंत पंचमी के दिन अखाडा़ में धर्म ध्वज की पूजा अर्चना के बाद होली का कार्यक्रम शुरू होता है। इसके पश्चात यहां चंग ढफ़, डांट-पट्टा, ढ़ोल-ताशा व फाल्गुनी धमालों की शुरुआत हो जाती है। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को जुलूस निकलता है। अखाड़ा से धर्म ध्वज लेकर नगरपालिका चौक पहुंचता है। वहां धर्म ध्वज को रोपकर होली तक अखाड़ा लगाया जाता है। धूलंडी के दिन धर्म ध्वज व वैध शुक्ला की शोभयात्रा के साथ गैर का जुलूस निकलता है। दोनों जुलूस कस्बे की सभी ढफ़ मंडलियों के साथ विदेशी पर्यटकों सहित हिन्दू- मुस्लिम भाई एक साथ नाचते गाते चलते हैं।