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परीक्षाओं के आयोजन में न हो मानवीय पक्ष की अनदेखी

राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन और मूल्यांकन का केंद्रीकरण न केवल भारतीय संघ की अवधारणा को चुनौती देता है, अपितु शिक्षा और ज्ञान के बाजारीकरण और वस्तुकरण को मजबूत करता है। परीक्षा और उनका आयोजन यदि अवश्यंभावी दैत्य है, तो कम से कम प्रश्न पत्र और आयोजन से तो मानवीय होने की उम्मीद की ही जानी चाहिए।

Jul 28, 2022 / 07:17 pm

Patrika Desk

परीक्षाओं के आयोजन में न हो मानवीय पक्ष की अनदेखी

परीक्षाओं के आयोजन में न हो मानवीय पक्ष की अनदेखी

नवनीत शर्मा
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय
विवि में अध्यापनरत
दुनिया भर की लगभग सभी विकसित सभ्यताओं में परीक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं ने वैधता प्राप्त कर ली है। औद्योगिक और लोकतांत्रिक समाजों में संसाधनों के आवंटन में ‘मेरिट’ को आधार माना गया है। बेहतर ज्ञान क्षमता और कुशलता को परखने के लिए परीक्षा का आयोजन इस क्रम में एक स्थापित परिणति है। ऐसे में परीक्षा और प्रतियोगिता का निष्पक्ष होना आवश्यक है। सबको समान अवसर एवं वस्तुनिष्ठता जांच ही वह कारक बनता है, जिसमें परीक्षार्थी से ‘नकलÓ न करने की अपेक्षा की जाती है। इसी के बाबत परीक्षा केंद्र और कक्ष की नियमावली रची जाती है और उनकी अनुपालना स्वाभाविक मानी जाती है।
परीक्षाओं में सख्त नियमावली का होना भी अपरिहार्य है, परंतु इन नियमों की पालना में मानवीय कारक को नकारा नहीं जा सकता। इन नियमों की पालना में अतिरेक की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता। ऐसे ही अतिरेक का उदाहरण हाल ही में नीट परीक्षा के आयोजन में केरल से सुर्खियों में है। खबरों के अनुसार एक परीक्षा केंद्र में मेटल डिटेक्टर ने अंत:वस्त्रों में लगे धातुओं के हुक को पहचाना और परीक्षार्थी महिलाओं को उनके बगैर ही प्रवेश की अनुमति दी गई। यह घटना महज दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण अथवा किसी एक निरीक्षक के अतिरेक का मामला कह कर नहीं टाली जा सकती। यह हमें इस मंथन के लिए विवश करती है कि क्या निष्पक्ष होने अथवा दिखने के लिए हम वस्त्र-विहीन अवस्था तक जाने को तैयार हैं? किसी भी परीक्षा की निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता मात्र उसके आयोजन संबंधी नियमों से ही नहीं होती, वरन् परीक्षित ज्ञान, पाठ्य सामग्री और प्रश्नों की ज्ञान मीमांसा से भी होती है। यह उस दर्शन से भी प्रभावित होती है कि परीक्षा का आयोजन चयन के लिए किया गया है अथवा छंटनी के लिए। प्रश्न पत्र के प्रश्न यदि स्मृति आधारित होंगे, तो सहज ही वह रटंत ज्ञान को बढ़ावा देंगे और सब कुछ रट लेने के प्रयास शत-प्रतिशत न हो सकने के कारण नकल की संभावना बढ़ेगी। ज्ञान के डिजिटल युग में क्या यह रटंत ज्ञान वैसी ही वैधता प्राप्त है, जैसी इसे पौराणिक समय में थी? अनुभवजन्य ज्ञान और तर्कजन्य ज्ञान के आलोक में स्मृति आधारित अथवा शब्द प्रमाण आधारित ज्ञान की वैधता वैसे ही अशेष है। इस तरह के प्रश्नों को मात्र उत्तर आधुनिक विवेचन कह कर नकारा नहीं जा सकता। किसी भी प्रतियोगी प्रश्न-पत्र में बहुसंख्यक प्रश्न समझ और प्रयोग के होने वांछनीय हंै। यह तभी संभव है जब प्रश्न पत्र बनाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए और योग्य लोगों का चयन हो। मुश्किल यह है कि वस्तुनिष्ठता के नाम पर राष्ट्रीय एजेंसी प्रश्नों का एक भंडार कोष बना कर उसमें से कंप्यूटर की सहायता से प्रश्न पत्र बनाने का उपक्रम करती है। प्रश्न पत्र के मुद्रण, भण्डारण, वितरण आदि को गोपनीय रखने के क्रम में अनूठी सुरक्षा का पालन किया जाता है। इसके बावजूद एक प्रमुख राज्य में व्यापम कांड वर्षों तक लोगों की ज्ञान और जिज्ञासा को घेरे रहा। हालत यह है कि जिस पुलिस विभाग से इन तमाम सुरक्षा कवायद में सहायता की अपेक्षा की जाती है, उसका अपना पुलिस भर्ती परीक्षा का प्रश्न पत्र सरे-बाजार बिकता है और हिमाचल प्रदेश सरकार को वह परीक्षा खारिज करनी पड़ती है।
प्रत्येक परीक्षा अपने प्रश्नपत्र लीक होने, नकल, चयन के लिए साक्षात्कार में भाई-भतीजावाद, जातिवाद, पार्टी बंदी के चलते चर्चा में रहती है। अभ्यर्थियों का परीक्षा की वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता में विश्वास को हिला रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन और मूल्यांकन का केंद्रीकरण न केवल भारतीय संघ की अवधारणा को चुनौती देता है, अपितु शिक्षा और ज्ञान के बाजारीकरण और वस्तुकरण को मजबूत करता है। परीक्षा और उनका आयोजन यदि अवश्यंभावी दैत्य है, तो कम से कम प्रश्न पत्र और आयोजन से तो मानवीय होने की उम्मीद की ही जानी चाहिए।

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