दायरे से बाहर नहीं आते आचार्य ने एक सवाल के जवाब में कहा कि ज्ञान एक कक्ष होता है और उसमें भाषाएं खिड़कियां होती हैं, कक्ष है तो खिड़कियां खुली रखें। वह अपने दायरे से बाहर आ कर रुचिपूर्वक अध्ययन कर सकता है। ज्यादातर हिन्दी रचनाकार व आलोचक अपने दायरे से बाहर नहीं आते। जब कहानीकार की भीतर की इच्छा जागती है तो वह अपने दायरे से बाहर निकलता है। यह देखें कि हम क्या ग्रहण कर सकते हैं। रचनाकार अपने लिए निर्णय स्वयं कर लेगा।
उन्होंने कहा कि साहित्यकार जिस फील्ड में हैं उसे पढे़ंऔर अध्ययन का विस्तार करें। सममकालीन भारतीय साहित्य की कहानियां पढ़ें। सिस्टर लैंग्वेजेज बंगाली, मराठी और पंजाबी सब पढ़ें। अगर आप अपने क्षितिज स्तर का विस्तार करना चाहते हैं तो विदेशी भाषा भी पढऩी चाहिए। अंग्रेजी और फ्रेंच कहानियां भी पढ़ें।
आचार्य ने कहा कि साहित्यकार के साहित्य का स्तर आदमी के पारिवारिक संस्कार, वातावरण और अध्ययन से तय होता है। किसी रचना की सीमा क्या है, यह देखना होगा। उसका निर्णय करना मुख्य बात है। सारे सवाल उससे हल हो जाते हैं। रचना ही मुख्य है। रचनाकार क्या चाहता है, यह प्रश्न दोयम है, बाकी बेमानी है। यह रचना की प्रकृति पर निर्भर करता है। समकालीन साहित्य के तकाजे कई बार साफ होते हैं और कई बार समकालीन साहित्य का तकाजा नजर नहंीं आता है, वह खोजना पड़ता है। कोई भी कवि समकालीनता के प्रति आंखें मूंदे नहीं रहता।
उन्होंने कहा कि अगर हम माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाएं मसलन ‘फूल की चाह’ देखें तो उसमें भी समकालीनता हो सकती है। एक बार किसी रचना में वह तत्व नहीं होता। कोई भी कवि समकालीनता के प्रति आंखें मूंदे नहीं रहता। सूरदास में समकालीनता दिखाई नहीं पड़ती, पर समग्र रूपेण विचार करने पर हम उसमें पाते हैं। इसलिए किसी रचनाकार की एक रचना से उसके बारे में फैसला नहीं होता।