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कानपुर

फूलबाग से इन दो नेताओं का था गहरा रिश्ता ,इंदिरा के बाद अटल को दिलाई दिल्ली सत्ता

स्वतंत्रता, शिक्षा और सियासत का केंद्र रहा है कानपुर, 90 के दशक तक इस मैदान से नेताओं को था प्यार

कानपुरAug 16, 2018 / 04:44 pm

Vinod Nigam

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फूलबाग से इन दो नेताओं का था गहरा रिश्ता , इंदिरा के बाद अटल को दिलाई दिल्ली सत्ता

कानपुर। देश के दो पूर्व प्रधानमंत्रियों का कानपुर के एतिहासिक फूलबाग मैदान से गहरा नाता था। आपातकाल के दौरान जब कांग्रेस को लोगों ने नकार दिया तो यहां के कांग्रेसी नेताओं ने इंदिरा गांधी को मजदूरों के शहर से रैली कर चुनाव का शंखदान करने के लिए तैयार किया। 1978 को इंदिरा गांधी फूलबाग के मैदान में दहाड़ी और इसकी गूंज देश के कोने-कोने में फैल गई और लोकसभा चुनाव में पंजे की जबरदस्त जीत हुई। इसी के बाद अधिकतर नेताओं की नजर मैनचेस्टर ऑफ ईस्ट पर रही। खुद अटल जी भी जब 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने, तो उसके पहले 1995 में फूलबाग में रही की थी। लेकिन संख्याबल नहीं होने से उनकी सरकार महज 13 दिन में ही गिर गई। इसके बाद फिर अटल जी को फूलबाग भाया और 1998 में यहां से ऐसी हुंकार भरी की पूरी जनता कमल के पक्ष में मतदान कर उन्हें दिल्ली की सत्ता सौंप दी।

सबसे प्यार फूलबाग, की कई सभा
मजदूरों के शहर का मिजाज यूं तो खामोश है, लेकिन जब यह शहर बोला है तो बदलाव जरूर हुआ है। इस बात की गवाह 1978 में इंदिरा गांधी की रैली बनी थी। 1977 में कांग्रेस बेहद खराब दौर से गुजर रही थी। 19 सितंबर 1978 में कांग्रेस आइकन इंदिरा गांधी ने कानपुर में एक रैली की थी। फूलबाग ग्राउंड में हुई रैली में इतनी भीड़ जुटी थी कि लोग पेड़ों पर चढ़कर इंदिरा को सुन रहे थे। इस रैली का ही असर था कि पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए जोरदार माहौल बना और 1980 में कांग्रेस दोबारा सरकार में लौटी। इसके बाद लंबे वक्त तक सियासत खामोश रही। लेकिन रामंमदिर आंदोलन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी अपने सबसे करीब शहर की शरण में आए। 1995 से लेकर 1999 तक अटल बिहारी वाजपेई ने लोकसभा चुनाव प्रचार का बिगुल कानपुर के फूलबाग मैदान से फूंका था और तीन बार दिल्ली की कुर्सी पर बैठे।

गठबंधन की सियासत को लेकर आए
अटल जी तमाम बाधाओं को पार करते हुए 90 के दशक में बीजेपी को स्थापित करने में भी अहम भूमिका निभाई। यह वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही कमाल था कि बीजेपी के साथ उस समय नए सहयोगी दल जुड़ते गए, वो भी तब जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दक्षिणपंथी झुकाव के कारण उस जमाने में बीजेपी को राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता था। लेकिन उनकी क्षवि सियासत में सेकुलरवादी नेता के रूप में रही। यही कारण था कि अटल जी 1999 में कई दलों को एकसाथ लाकर पूरे पांच साल सरकार चलाई। सभी नेता भी उन्हें प्यार करते थे और विरोधी दल कांग्रेस भी उनकी इस क्षवि की कायल थी और 2004 में कई दलों को मिलाकर यूपीए का गठन किया। अटल जी ने देश में गठबंधन का राजनति को जन्म दिया, जो आज भी जारी है।

उदारवदी चेहरा
कांग्रेस से इतर किसी दूसरी पार्टी के देश के सर्वाधिक लंबे समय तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहने वाले वाजपेयी को अक्सर बीजेपी का उदारवादी चेहरा कहा जाता है। हालांकि उनके आलोचक उन्हें आरएसएस का ऐसा मुखौटा बताते रहे हैं, जिनकी सौम्य मुस्कान उनकी पार्टी के हिंदूवादी समूहों के साथ संबंधों को छुपाए रखती है। साल 1999 की वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा की उनकी ही पार्टी के कुछ नेताओं ने आलोचना की थी, लेकिन वह बस पर सवार होकर लाहौर पहुंचे। वाजपेयी की इस राजनयिक सफलता को भारत-पाक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत की संज्ञा देकर सराहा गया। लेकिन इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने गुपचुप अभियान के जरिए अपने सैनिकों की कारगिल में घुसपैठ कराई और इसके हुए संघर्ष में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी।

निडर नेता, हिन्दी के पुरोधा
11 और 13 मई 1998 को पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट कर अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी को चौंका दिया। यह भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण था। इससे पहले 1974 में पोखरण एक का परीक्षण किया गया था। दुनिया के कई संपन्न देशों के विरोध के बावजूद अटल सरकार ने इस परीक्षण को अंजाम दिया, जिसके बाद अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोपियन यूनियन समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह की रोक भी लगा दी थी। इसके बावजूद अटल सरकार ने देश की जीडीपी में बढ़ोतरी की. पोखरण का परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे बड़े फैसलों में से एक है। 1977 में मोरार जी देसाई की सरकार में अटल विदेश मंत्री थे, वह तब पहले गैर कांग्रेसी विदेश मंत्री बनें थे। इस दौरान उन्होंने संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया था और दुनियाभर में हिंदी भाषा को पहचान दिलाई, हिंदी में भाषण देने वाले अटल भारत के पहले विदेश मंत्री थे।

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