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कानपुर

महारानी विक्टोरिया का सिंहासन हिल गया था जब 13 सपूतों को एक साथ फांसी पर लटकाया था

1857 का संग्राम और इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को खदेड दिया तो कर्नल कैम्पवेल ने इन वीरों को फांसी पर लटका दिया।

कानपुरAug 12, 2018 / 12:52 pm

Arvind Kumar Verma

smarak

महारानी विक्टोरिया का सिंहासन हिल गया था जब 13 सपूतों को एक साथ फांसी पर लटकाया था

कानपुर देहात-हाहाकार गूंज रहा था, चारो तरफ चींखें ही चींखें सुनायी देती थी। दिन सुबगुबाहट तो रात घोड़ों की टापों की आवाजें सुन सुनकर गुजरती थी। लगता था कि पता नही कब कयामत आ जाये और गोरों का हंटर बरसने लगे। सन्नाटे की आवाज़ें जेहन में एक दहशत पैदा करती थी। कभी गांव के पीपल के नीचे बैठकर सावन में ठिठकोलियाँ हुआ करती थी, वो सब कहीं गुम सी हो गयी थी। मंगलपुर क्षेत्र के सबलपुर गांव के पूर्व प्रधान महेशचंद्र बताते हैं कि पिता जी ने जब ये अंग्रेजी हुकूमत की दास्तां सुनाई तो रूह कांप गयी। कि उस दौरान 1857 की आज़ादी की क्रांति भड़क उठी थी। गुलामी की जंजीरों में अब लोगों को चुभन सी होने लगी थी। सबलपुर में भी अंग्रेजों से मोर्चा लेने की चिंगारी सुलग रही थी।
हथियार नहीं थे सिर्फ जज्बा था जेहन में

क्रांति की जंग में देश के क्रांतिकारियों को लड़ते देख गांव में उछल कूद करने वाले हट्टे कट्टे नौजवानों में भी चिंगारी सुलग रही थी। जब पहली बार अंग्रेज अफसर कर्नल कैम्पवेल घोड़े पर सवार होकर गांव से गुजरा तो आने वाले तूफानी मंजर को भांपते हुए गांव के युवाओं ने अंग्रेजों से मोर्चा लेने की ठान ली और ताल ठोंक दी। जैसे ही अंग्रेजी सेना गांव आई इन वीर राजपूतों ने पथराव कर उन्हें खदेड़ तो दिया लेकिन एक अजीब अनहोनी की बू आने लगी थी। किसी के पास हथियार बारूद नही था, सिर्फ आज़ादी की चाह और जज्बा था। सेना की जुबानी सुन कैम्पवेल ने इसे चुनौती मान लिया और जंग में कूदे सपूतों की तलाश शुरू हो गयी। हैवानियत की सत्ता और हुकूमत के आगे आखिर कब तक भागते।
बस फिर इन 13 वीरों की सांस थम गई

अंत में कर्नल ने मई 1857 में गांव में खडे नीम के पेड़ से गांव के ही उमराव सिंह, देवचंद्र, रत्ना राजपूत, भानू राजपूत, परमू राजपूत, केशवचंद्र, धर्मा, रमन राठौर, चंदन राजपूत, बलदेव राजपूत, खुमान सिंह, करन सिंह व झींझक के बाबू सिंह उर्फ खिलाडी नट आदि 13 क्रांतिकारियों को पकडकर ग्रामीणो के सामने फांसी पर लटका दिया। उन वीरों की सांस तो थम गई लेकिन गांव में मातम का वह मंजर रहा, जिसे आज तक लोग याद करते हैं। वह नीम का पेड़ तो जर्जर होकर दम तोड़ चुका लेकिन वहां बना शहीद स्मारक आज भी उस बर्बरता की कहानी को जिंदा किये है और वह चबूतरा अंग्रेजों की बर्बरता की गवाही दे रहा है।
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