झंडागीत के रचयिता श्यामलाल गुप्त पार्षद के गांव में बने गणेश आश्रम में गांधीजी आए थे तो उस वक्त ये गांधीवाद, राजनीतिक, सामाजिक और ग्रामोद्योग की चेतना का गढ़ था. यही वजह थी कि गांधीजी को यह आश्रम बहुत प्रिय था. यहां वह कई बार आए. वर्तमान में हालात ये हैं कि गांधीजी के नाम पर यादागार ये भवन पूरी तरह से मरम्मत मांग रहा है. गांधीघर में भी सन्नाटा ही रहता है. यहां पर सामान रखा जाता है.
कहने को तो अभी भी आश्रम में सूत कातने के चरखे लगे हैं, लेकिन कुछ गिनी-चुनी महिलाएं और पुरुष ही यहां काम करते नजर आते हैं. गांधीजी का चित्र यहां के कमरे में लगा है. यहां के गांव वाले आश्रम पर बहुत गर्व करते हैं. गांधीजी को आश्रम में लाने का श्रेय श्यामलाल गुप्त पार्षद और गणेश शंकर विद्यार्थी को दिया जाता है. लोग बताते हैं कि इस आश्रम का सपना साबरमती के आश्रम की तर्ज पर देखा गया था.
श्यामलाल पार्षद के नवासे साकेत गुप्त कहते हैं कि आश्रम के कमरे जर्जर हो चुके हैं. यहां पर कभी 500 से ज्यादा महिला पुरुष काम करते दिखते थे. हथकरघों की आवाज़ आती रहती थी. महिलाओं की खासी संख्या सूत कातने को इकट्ठा होती थी. पूरे प्रदेश में गणेश सेवा आश्रम के उत्पाद छाए थे. 1975 के बाद यहां की रौनक खत्म होती गई.
भवन की हालत को सुधारने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने 1956 में 5000 रुपए दिए थे. यहां कभी गणेश शंकर विद्यार्थी हफ्ते में तीन दिन आते थे. पार्षदजी उन्हें कभी सरसौल स्टेशन से साइकिल से लेने जाया करते थे. इस आश्रम ने गांव वालों को रोजगार दिया था. आश्रम में अनाज का उत्पादन भी होता था. नीम का साबुन किसी ब्रांडेड कंपनी की टक्कर में बिकता था. यहां के तेल, मंजन, उत्पाद छाए थे.