जोधा सिंह पहले क्रांतिकारी थे, जो तात्या टोपे के सिखाए गुरिल्ला युद्ध के जरिए अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। जोधा सिंह ने अपने साथियों के बल पर पूरी तहसील पर कब्जा कर तहसीलदार को बंधक बना लिया और बदले में अंग्रेजों से लोगों की लगान माफ करवाई थी। लेकिन एक अपने ने मुखबिरी कर दी और अंग्रेज फौज ने उन्हें व 51 अन्य साथियों को गिरफ्तार कर लिया और इमली के पेड़ पर एक साथ सभी को फांसी पर लटका दिया। 160 साल बीत जाने के बाद आज भी इमली का पेड़ बरकरार है और क्रांतिकारियों की कुर्बानी को युवाओं तक पहुंचा रहा है।
कौन थे जोधा सिंह अटैया
बावनी इमली शहीद स्थल फतेहपुर जिले के बिन्द की तहसील में खजुआ कस्बे के निकट पारादान में स्थित है। ठाकुर जोधा सिंह अटैया, बिंदकी के अटैया रसूलपुर (अब पधारा) गांव के निवासी थे। उनके पिता का नाम अमर सिंह था, जो पेशे से किसान थे। अमर सिंह के 3 बेटे थे, जिनमें जोधा सिंह सबसे बड़े थे। उनके परिवार के सदस्य ठाकुर लाखन सिंह जो अब खजुहा में रहते हैं ने बताया कि दादा जी ( जोधा सिंह ) के पिता को अंग्रेज दरोगा ने लगान न देने पर पेड़ पर बांध कर मारने के साथ ही तहसील के लॉकप में डालवा दिया। किसी तरह लगान भरी गई तब दादा जी के पिता जी को अंग्रेजों ने छोड़ा। बस उस घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। दादा जी नानाराव पेशव से प्रभावित होकर क्रांतिकारी जोधा सिंह अटैया बन गए थे। जोधा सिंह ने अपने साथी दरियाव सिंह और शिवदयाल सिंह के साथ मिलकर गोरिल्ला युद्ध की शुरुआत की और अंग्रेज़ो की नाक में दम करके रख दिया। जोधा सिंह ने 9 दिसंबर 1857 को अंग्रेज सरकार की तहसील जहानाबाद को अपने साथियों के साथ घेर तहसीलदार को बंधक बना लिया और पूरा खजाना लूट लिया था।
पिता को मारने वाले दरोगा को दी मौत
लाखन सिंह बताते हैं कि दादा जी ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्व का एलान कर दिया और 51 लोगों को मिलाकर गैंग बना लिया। दादा जी को हथियार पनयी गांव से अंग्रेज से छिपकर वहां के क्रांतिकारियों नो मुहैया कराए। पनयी के हर घर में देशी बंदूक व तमंचे और कारतूस उसी दौरान से बनने शुरु हो गए, जो आज भी जारी हैं। जोधा सिंह ने जिस दरोगा ने उनके पिता को पीटा था उसे 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गांव में अंग्रेज सिपाहियों के साथ को घेर कर मार डाला। 7 दिसंबर 1857 को गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर एक अंग्रेज परस्त को भी मार डाला।
इलाहाबाद की पलटन ने बोला धावा
चार फरवरी 1858 को जोधा सिंह अटैया पर इलाहाबाद में तैनात ब्रिगेडियर करथ्यू को बुलाया गया। ब्रिगेडियर ने पांच सौ सैनिकों के साथ 5 फरवरी की रात मिस्सी और सहमशी के जंगल में धावा बोल दिया। अंग्रेजी फौज ने अटैया को चारों तरफ से घेर लिया था। इस दौरान अंग्रेज फौज और जोधा के लड़ाकों के बीच चार घंटे तक जबरदस्त मुठभेड़ हुई। जिसमें अंग्रेज फौज को काफी तादाद में जान माल का नुकसान उठाना पढ़ा। सुबह की भोर पहर वह गोरों की फौज को चकमा देकर निकल गए। जोधा सिंह के बच निकलने से अंग्रेज ब्रिगेडियर आग बबूला हो गया और उसने उन्हें पकड़ने के लिए नई चाल चली। जोधा के गांव के लम्बरदारों को मिलाया, उन्हें पैसे और जमीन दी। बदले में उसने उनसे जिन्दा जोधा सिंह को देने की बात कही। अंग्रेज अफसर की लालच में एक लम्बरदार आ गया और उसने जोधा सिंह के ठिकाने की जानकारी ब्रिगेडियर को दे दी।
औरंगजेब के महल से किया गिरफ्तार
जोधा सिंह 28 अप्रैल 1858 को अपने 51 साथियों के साथ औरंगजेब के महल पर डेरा जमाए हुए थे। तभी मुखबिर की सूचना पर कर्नल क्रिस्टाइल की सेना ने उन्हें सभी साथियों सहित बंदी बना लिया और सभी को इस इमली के पेड़ पर एक साथ फांसी दे दी। बर्बरता की चरम सीमा यह रही कि शवों को पेड़ से उतारा भी नहीं गया। कई दिनों तक यह शव इसी पेड़ पर झूलते रहे। चार मई की रात अपने सशस्त्र साथियों के साथ महराज सिंह बावनी इमली आए और शवों को उतारकर शिवराजपुर गंगा घाट में इन नरकंकालों की अंत्येष्टि की। खजुहा और बिन्दगी के बीच पारादान कोठी स्थित शहीद स्मारक में आज भी इमली का बूड़ा पेड़ मौजूद है। टहलनियां अब जवान नहीं रहीं, जिनमें अंग्रेजों ने एक साथ 52 लोगों को फांसी पर लटका दिया था। वह बूड़ी हो गई हैं लेकिन आज भी वहां जोधा सिंह अटै़या व उनके साथियों की मौजूदगी दिखाई तो नहीं देती पर आहट जरुर सुनाई देती है।