कानपुर। मिट्टी से बनी दीवारें और फूस की छतें, टूटे खड़ंजे, लबालब पानी से भरी टूटी सड़कें एक ही वेशभूषा में सभी पुरुष यह है एक ऐसा गांव जहां बसने वाले सभी हैं भिखारी। हम बात कर रहे हैं कानपुर से सटे कपाड़िया बस्ती की, 4 हज़ार की जनसँख्या वाला ये गाँव देश के पिछड़े गांव में से एक है।
यहां कुछ समय बिताने पर आप देख सकतें है कि हर आदमी के काले घने बाल, बड़ी बड़ी मूंछें और दाढ़ी, ढीले कपड़े पहने हुए है। भगवा कुर्ता और धोती के साथ माथे एक पर तिलक सजा हुआ है। ये किसी एक धर्म से जुड़े होने की ओर आदेशा करता है।
गांव में रहने वाले 54 वर्षीय रामलाल कहते हैं कि अगर हम बाल कटवा लें और पैंट कमीज पहने तो हमारी जीविका खो जाएगी। हम भिक्षा पर ही निर्भर हैं। यहां के लोग नौकरियों से ज्यादा भिक्षा के माध्यम से जीवन व्यापन करने में विश्वास रखते हैं।
कब सजा ये गांव
रामलाल कहते हैं कि उनके पूर्वज बंजारे थे। करीब 200 साल पहले वो इस जगह आये थे। छोटे छोटे टेंट लगाकर वह यह रुके और भीख मांगने लगने। यही उनकी आय का एक इकलौता स्रोत था। वैसे तो आम तौर पर कुछ महीने एक स्थान पर रुक कर वो नई जगह की ओर चल देते थे। वह कहते हैं कि उन्होंने अपने दादा और पिता से सुना है कि उस समय कपाड़िया बस्ती और आस पास के क्षेत्र में राजा मान सिंह का राज था। राजा को हमारे पूर्वज धार्मिक लगे और उन्होंने हमसे कोई खतरा भी नहीं दिखा। राजा मन सिंह ने हमारे पूर्वजों को ज़मीन दी और यही रुकने का आग्रह किया। उसके बाद से इस जगह पर हम स्थापित हो गए और भिक्षा के माध्यम से जीवन व्यापन होता रहा। रामलाल कहते हैं ऐसा दिखना हमारे लिए ज़रूरी है। अगर ऐसे नहीं रहेंगे हम तो कोई हमे भीख नहीं देगा। हालाँकि रामलाल पढ़े लिखे नहीं है लेकिन अपने कुर्ते में पेन ज़रूर सजाए रहते हैं।
क्या है जनप्रतिनिधि स्थानीय पार्षद अशोक दुबे कहते हैं कि कपाड़िया के लोग सदियों से भीख माँग की है। उन्होंने कभी अपने ;हालातों को बदलने के बारे में नहीं सोचा। उनकी धरना ही बन चुकी है कि नौकरी से अच्छा भीख मांगना है। वे सोचते हैं कि नौकरी करने से वे 10 हज़ार रूपए कमा सकते हैं लेकिन भीख मांगने से कोई राशि तय नही। वह जितना चाहे उतना कमा सकते हैं। ज़ाहिर है ये शिक्षा की कमी के कारण ही है।
-क्या क्षेत्र में सरकारी स्कूल है ? अगर हाँ तो ये बच्चे वहाँ क्यों नहीं जाते ?
इस प्रश्न का जवाब देते हुए अशोक बताते हैं कि यहाँ सरकारी स्कूल है। बच्चे यहाँ जाते भी है लेकिन पढ़ने नहीं सिर्फ मिड डे मील खाने। इनके लिए स्कूल यही पास में एक मंदिर है जहां मंगल और शनिवार को हज़ारों की संख्या में भक्त आते हैं। ये इन्ही से भीख मांगते हैं। यही से इनकी ये धारणा बन चुकी है।
अशोक आगे कहते हैं कि दशहरा, दुर्गा पूजा जैसे त्योहारों के समय ये दोसरे राज्यों में चले जाते है जहां त्योहारों की अवधि ज़्यादा होती है। भीख मांग कर भारी पैसा ये इखट्टा कर लेते हैं। एक समस्या ये भी है कि इनमें फॅमिली प्लानिंग नाम की चीज़ नहीं है। 62 वर्षीय केसर बाई के 14 बच्चे हैं। उनकी सोच ये है कि अपनी बेटी की शादी के लिए वो एक भिखारी ही ढूंढेगी।
‘ऐसी स्थिति में जी रहे ये लोग समाज को सिर्फ खोकला कर रहे हैं। सरकारों को ज़रुरत इन्हें मोटिवेशनल कैंप लगा कर जागरूक करें और इन्हें एक नया भविष्य दें। ‘ ये कहते है पीपीएन कोल्लेग के सोशियोलॉजी के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट तेज बहादुर सिंह। वही दूसरी ओर कानपुर के आला अधिकारी इस सब से अनजान हैं। वरिष्ठ अधिकारी कौशल राज शर्मा ने इस बारे में जानकारी न होने की बात कही और कहा कि जल्द ही इस विषय में कुछ प्रयास किये जाएंगे।