पहले तीन दिन की होती थी शादी
वर्तमान समय में न सिर्फ शादी का अंदाज बदला है। इसके स्वरूप में भी बदलाव आ गया है। समयाभाव के चलते अब चंद घंटे में ही शादी की रश्में पूरी कर ली जाती है। ९० के दशक तक यह कार्यक्रम तीन दिन का हुआ करता था। आवागमन के साधन भी उस समय कम हुआ करते थे। लोग बैलगाड़ी से बारात जाते थे। इसके अलावा बर्तन व कपड़े भी साथ में लेकर चलते थे।
साज-सज्जा में जितने रुपये खर्च होते है उतने में हो जाती थी शादी
वर्तमान दौर की बात करें तो दूल्हा-दूल्हन को सजाने में जितने रुपये खर्च किए जाते है उतने में ९० के दशक में शादी समारोह पूरा हो जाता था। शादी को यादगार बनाने के लिए अब लोग देश-विदेश का प्रसिद्ध स्थान चुनने लगे हैं, जिसमें और ज्यादा बजट खर्च होता है। इसके अलावा आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी का प्रभाव बढ़ा, सामाजिक ढांचे व सरोकारों में भी बदलाव हो गया। इसका असर शादी-समारोह सहित अन्य सामाजिक कार्र्यक्रमों में स्पष्ट रूप से देखा जाने लगा। जो काम आपसी सहयोग से मुफ्त में हो जाते थे। उसके लिए लाखों रुपये खर्च किए जाने लगे। एक-दूसरे से बेहतर दिखने की होड़ में बाजारवाद को इस तरह से बढ़ाया गया कि शादी समारोह में अब हर काम के लिए अलग प्रोफेशनल्स की मदद ली जाने लगी। पहले महीनों से तैयारी शुरू कर दी जाती थी, लेकिन अब इसके लिए बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं होती है।