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कोलकाता

गर्भ में बच्चों को जानलेवा बीमारी होने पर पता लगाने की सरकारी अस्पतालों में व्यवस्था नहीं

– बंगाल के लिए बनती जा रही विकट समस्या

कोलकाताMar 26, 2019 / 05:19 pm

Ashutosh Kumar Singh

kolkata West Bengal

गर्भ में बच्चों को जानलेवा बीमारी होने पर पता लगाने की सरकारी अस्पतालों में व्यवस्था नहीं

कोलकाता

करीब दो महीने पहले की बात है, 26 सप्ताह के गर्भ को खत्म करने के लिए कोलकाता की एक महिला हाईकोर्ट में पहुंची थी। उसने बताया था कि कई जांच में पता चला है कि उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को डाउन सिंड्रोम की बीमारी है और अगर उसका जन्म हुआ तो वह कई मामले में दिव्यांग होगा जिसकी वजह से उसका जीना मुश्किल हो जाएगा। अंत में उच्च न्यायालय ने एसएसकेएम अस्पताल के मेडिकल बोर्ड की सलाह के बाद उक्त महिला को गर्भाधान की अनुमति दे दी थी। बाद में दो और महिलाओं ने भी इसी तरह की समस्याओं को लेकर हाईकोर्ट में याचिका लगाई जिनका गर्भ 20 सप्ताह से ऊपर का हो गया था। ऐसे में अब यह सवाल खड़ा होने लगा है कि आखिरकार पश्चिम बंगाल में गर्भ में बच्चों को डाउन सिंड्रोम जैसी जानलेवा बीमारी होने पर उसका पता लगाने की व्यवस्था है या नहीं। अभी तक जितने भी मामले सामने आए हैं उन सभी मामलों में 20 सप्ताह से पहले पता नहीं चल सका है।
पता चला है कि राज्य सरकार के अस्पतालों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे भ्रूण के कम से कम 20 सप्ताह के होने से पहले इस बीमारी का पता चल सके। कुछ चुनिंदा निजी अस्पतालों में ऐसी व्यवस्थाएं हैं भी जो तीन से चार सप्ताह के अंदर के भ्रूण में डाउन सिंड्रोम के बारे में पता लगा सकें लेकिन वह भी कोलकाता में नहीं है बल्कि चेन्नई और बेंग्लूरु जैसे शहरों के अपनी शाखा अस्पतालों के जरिए पता लगाते हैं। ऐसे में बंगाल के लिए यह विकट समस्या बनती जा रही है कि आखिरकार राज्य सरकार जो लगातार दावा करती रही है कि मुख्यमंत्री के साथ-साथ राज्य का स्वास्थ्य मंत्रालय ममता बनर्जी के पास होने की वजह से स्वास्थ्य क्षेत्रों में लगातार सुधार हुआ है। वहां गर्भ में बच्चों को होने वाली इस तरह की जानलेवा बीमारी के बारे में समय से पहले पता लगाने की व्यवस्था क्यों नहीं है। दरअसल 20 सप्ताह से अधिक का गर्भ हो जाने के बाद बच्चे में किसी तरह की बीमारी पता चलने पर अगर गर्भाधान जरूरी हो तो इसके लिए पीडि़त महिलाओं को न्यायालय का चक्कर लगाना पड़ रहा है जिससे शारीरिक मानसिक और आर्थिक बोझ बढ़ रहा है।
जुलाई, 2017 शहर की निवासी, एक 26-सप्ताह की गर्भवती महिला को सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात की अनुमति दी थी जिसके बाद देशभर में पीडि़त महिलाएं गर्भपात के लिए न्यायालय पहुंच रही हैं। अदालत ने तर्क दिया था कि 33 वर्षीय महिला को भ्रूण के जन्म दोषों का पता चला था। डॉक्टरों ने कहा कि अगर बच्चे का जन्म हुआ, तो भी उसे कई सर्जरी से गुजरना होगा। उसके बाद भी वह ज्यादा दिन नहीं जी पाएगा। इस बारे में कोलकाता के डॉक्टरों का कहना है कि भ्रूण परीक्षण में पता लगाया जा सकता है कि क्या गर्भ में पल रहा बच्चा थैलेसीमिया, डाउन सिंड्रोम, दिल की जटिलताओं, मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी आदि की बीमारी से पीडि़त है या नहीं। पहले तीन महीनों (12 सप्ताह) में फिटल अल्ट्रासाउंड करके इस प्रकार की जटिलता का पता लगाया जाता है। स्कैन में ‘उच्च जोखिम’ देखने का मतलब है कि बच्चे को डाउन सिंड्रोम होने का खतरा है। यह जांचने के लिए एमनियोटिक द्रव का परीक्षण किया जाता है। लेकिन समस्या यह है कि राज्य के सरकारी अस्पतालों के पहले तीन महीनों में, प्रथम-टाइमर स्क्रीनिंग (एफटीएस) प्रणाली का कोई प्रावधान नहीं है। निजी अस्पतालों में है, लेकिन वे यह परीक्षण मुंबई और चेन्नई से कराते हैं जो काफी महंगा है।
वास्तव में, एफटीएस के लिए जेनेटिक लैब, प्रशिक्षित स्त्रीरोग विशेषज्ञ, फिटल मेडिसिन, नियोनेटोलॉजिस्ट, रेडियोलॉजिस्ट और विशेषज्ञ टीम की आवश्यकता होती है। डॉक्टरों का मानना है कि एफटीएस प्रणाली में प्रशिक्षित स्त्रीरोग विशेषज्ञ की कमी ही सरकारी अस्पतालों में एफटीएस परीक्षण के बुनियादी ढांचे का विकास नहीं होने का एक कारण है। एसएसकेएम अस्पताल की एक महिला रोग विशेषज्ञ ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि सरकारी अस्पताल में आने वाले मरीजों का बाहर से सिंड्रोम का परीक्षण नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, यह काफी महंगा होता है। उनके पास वित्तीय क्षमता नहीं है, लेकिन डाउन सिंड्रोम के मामलों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। इसी तरह से बाल रोग विशेषज्ञ अपूर्व घोष ने कहा कि गर्भ में बच्चे अगर डाउन सिंड्रोम से पीडि़त हो जाएं तो उसकी जांच, इलाज और जन्म के बाद बच्चे को बचाना लगभग काफी जटिल है। इसके अलावा इसमें खर्च भी काफी अधिक होता है जिसकी वजह से परिवार के लोगों को काफी अधिक मानसिक और आर्थिक समस्याओं से गुजरना पड़ता है। राज्य के सरकारी अस्पतालों में तो इसकी कोई सुविधा नहीं है जिसके कारण यहां की महिलाएं काफी अधिक परेशान हो रही हैं।
प्रसूति एवं स्त्री रोग के प्रोफेसर, चिकित्सक कुशाग्राम घोष ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में डाउन सिंड्रोम से संक्रमित बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है, जो बहुत चिंता की बात हैं। उन्होंने कहा कि समय आ गया है कि सरकार गर्भ में तीन महीने के बच्चे में डाउन सिंड्रोम, थैलीसीमिया, हृदय रोग संबंधी अन्य जानलेवा बीमारियों की जांच की व्यवस्था करें।
सरकारी डॉक्टरों का एक बड़ा हिस्सा यह सोचता है कि भ्रूण की अन्य जटिलताओं का निर्धारण करने के लिए उसे तुरंत सरकारी अस्पतालों में फाइटल स्कैन शुरू करना चाहिए। इससे गर्भपात जैसी स्थितियों से बचना संभव हो सकता है। राज्य के स्वास्थ्य और शिक्षा निदेशक प्रदीप मित्रा कहते हैं कि फिटल मेडिसिन में प्रशिक्षित स्त्रीरोग विशेषज्ञ की कमी मुख्य समस्या है। हालांकि, यह तय किया गया है कि आवश्यक परीक्षण सार्वजनिक अस्पताल की अपनी प्रयोगशाला में शुरू किए जाएंगे। जब सेवा शुरू की जाएगी, तो आम लोग लाभान्वित होंगे। इसके साथ ही, पीजीए पॉलीसाइक्लिनिक बायोमेडिकल जीनोमिक्स सेंटर में सुधार किया जा रहा है।
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