यह था पूरा मामला..
साल था 2003, भारतीय जनता पार्टी राजस्थान की राजनीति में पहली बार अपने सेनापति के बिना चुनाव मैदान में उतरी थी । ऐसा लग रहा था मानो बिना दुल्हे की कोई बारात हो। दरअसल तत्कालीन उपराष्ट्रपति और भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक भैरोंसिंह शेखावत सक्रिय राजनीति से सन्यास ले चुके थे। भाजपा ने तब अटल सरकार में मंत्री रही वसुंधरा राजे को राज्य की कमान सौंपी और बतौर सीएम उम्मीदवार प्रोजेक्ट कर दिया। ये बात प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं को नागवार गुजरी लेकिन तब राजनीति में मर्यादाओं का महत्व हुआ करता था, ऐसे में जो फैसला दिल्ली से अटल होकर आया हो उसकी अवेहलना भला कैसे कर जाते।
टिकट वितरण में राजे की ही चली…और आखिर में हुई प्रत्याशियों की घोषणा, जयपुर विधानसभा की बनी पार्क सीट से प्रताप सिंह खाचरियावास का नाम नदारद था। दिल्ली की बैठक में वसुंधरा खाचरिवास के नाम पर अड़ गई, लेकिन केंद्र द्वारा प्रस्ताव खारिज हो गया। वसुंधरा को झालरापाटन से नामाकंन दर्ज करना था लेकिन चुनाव से ऐन वक्त पहले वसुंधरा नाराज होकर घर पर बैठ गई। जयपुर से लेकर दिल्ली तक तहलका मच गया। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकार प्रमोद महाजन को बुलवाया और राजे का घर आने को कहा। आडवाणी के घर बैठक में प्रमोद महाजन, वसुंधरा के अलावा जसवंत सिंह भी शामिल हुए। राजे ने पहुंचते ही कह दिया …ऐसे संगठन का काम नहीं किया जा सकेगा।
और वादे के मुताबिक ये अजगर कांग्रेस को निगल गया घंटो की मंत्रणा के बाद राजे को मनाने की कोशिशें हुई..अगले दिन पत्रिका के मुख्य पेज पर महारानी कोपभवन में, मनाने के प्रयास शीर्षक से खबर प्रकाशित हुई। बनी पार्क से उम्मीदवार तो नहीं बदला लेकिन राजे मान गई । भाजपा की सत्ता में वापसी हुई और वसुंधरा राजे प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गई। राजे किस शर्त पर मानी इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया लेकिन राजस्थान की राजनीति के इस चर्चित घटनाक्रम ने देख भर में खुब सुर्खियां बटौरी….