पिताजी ने पुरानी धानमंडी में ट्रांसपोर्ट कारोबार की शुरुआत की थी। 20 साल पहले उनकी मृत्यु हो गई तो इकलौता भाई काम संभालने लगा, लेकिन 3 साल बाद वह भी साथ छोड़ गया। एमए इंग्लिश का मेरा फाइनल इयर था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटी थी, लेकिन सबकुछ बिखरता देख मैंने इसे संभालने की ठानी।
पत्रिका : कितना मुश्किल था ये फैसला?
समाज की तो बात छोडि़ए, नाते-रिश्तेदार तक भौंचक रह गए थे। पहले घर में लडऩा पड़ा और फिर समाज में। इस धंधे में पहले से जमे 90 फीसदी मर्दों को मेरा दखल बर्दाश्त नहीं हुआ।
हां, हमारे समाज में लड़कियों को दोयम समझा जाता है। यही वजह है कि मेरी लड़ाई खत्म नहीं हुई। आधी रात को जब कहीं ट्रक खराब होता है तो मुझे अकेले जाना पड़ता है। नो एंट्री के चलते ट्रक आधी रात में आते हैं, उन्हें खलवाने के लिए खड़ा रहना पड़ता है।
पत्रिका : सबसे मुश्किल दौर कौन-सा रहा?
पिता और भाई की मृत्यु के बाद कारोबार बिखर चुका था। हमारे पास ट्रक भी नहीं बचे थे। कारोबार को दोबारा खड़ा करने का वो दौर सबसे मुश्किल था, लेकिन मां के आशीर्वाद और बहिनों के साथ से सफलता मिली। 17 साल के संघर्ष के बाद इसी नतीजे पर पहुंची हूं कि जो टूटा सो डूबा और जो लड़ा सो हुआ पार।
पत्रिका : शादी क्यों नहीं की?
शायद ही कोई लड़की होगी जो शादी का ख्वाब न देखे… मैंने भी देखे, लेकिन कभी सपनों का वो राजकुमार नहीं मिला जो मेरे हौसले और हिम्मत को समझ सके, अपने अहम को किनारे रख मेरी सफलताओं को स्वीकार सके। मेरा मन शादी के सोशल टैबू का शिकार नहीं है।
पत्रिका : वो चीज जो आपको सबसे ज्यादा खलती है?
समाज की दोहरी सोच और महिलाओं की सुरक्षा। ‘बेटियां पढ़ाओ, बेटियां बढ़ाओ’ जैसे दावे तो हर कोई करता है, लेकिन जब निभाने की बारी आती है तो लोगों को सांप सूंघ जाता है। कब कोई मासूम बच्ची आधी रात को बेखौफ शहर की सड़कों पर घूम सकेगी?