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साजों पर सुर छेडऩे वाले पत्थर तोडऩे को मजबूर,आखिर किस मोड़ पर लाकर छोड़ेगा कोरोना

locationकोटाPublished: May 23, 2020 12:02:42 am

Submitted by:

Suraksha Rajora

Corona Lockdown पापी पेट के खातिर रोजी बदलने को मजबूर

साजों पर सुर छेडऩे वाले पत्थर तोडऩे को मजबूर,आखिर किस मोड़ पर लाकर छोड़ेगा कोरोना

साजों पर सुर छेडऩे वाले पत्थर तोडऩे को मजबूर,आखिर किस मोड़ पर लाकर छोड़ेगा कोरोना

@ सुरक्षा राजोरा

कोटा. कोरोना के संकट का यह दौर किस मोड़ पर लाकर छोड़ेगा। इसने किसी को अपनों से दूर कर दिया है, किसी पर रोजी का संकट खड़ा कर दिया है तो कोई पापी पेट के खातिर रोजी बदलने को मजबूर है।

कुछ ऐसी ही दास्तां हैं घोडा बाबा निवासी रविन्द्र की। वर्षांे से साजों पर सुरों की तान छेड़कर शादियों में पर लोगों को नृत्य करने पर मजबूर करने वाला कालू इन दिनों पेट के खातिर पत्थर तोडने को मजबूर है।

वे वर्षों से मकबरा में एक बैंड कम्पनी में काम करता है, लेकिन कोरोना के कारण शादी ब्याहों में सरकार की गाइड लाइन के तहत बैंड बाजे समेत किसी विवाह समारोह की अनुमति नहीं है। ऐसे में कालू पर घर का खर्चा चलाना मुश्किल हो गया तो उसे मजबूरी वश मजदूरी शुरू करनी पड़ी। उन्होनेे बताया कि वह घोड़ा बस्ती में रहता है। आय का कोई स्त्रोत नहीं दिखा व भूखे मरने की नौबत आ गई तो एक जगह भवन निर्माण का कार्य चलते देखा और वहां मजदूरी शुरू कर दी। कालू के साथ उसकी पत्नी भी मजदूरी कर रही है।
कुछ तो करना होगा

कहानी एमपी बाबू की भी कुछ इसी तरह की है। फर्क इतना है कि कालू् ने इन दिनों सुरों से नाता तोड़ लिया तो मध्यप्रदेश इनोतिया गांव के रहने वाले धीरज सिंह ने महंगाई की इस दौर में परिवार का पेट पालने के लिए सब्जी का ठेला लगा लिया। वह दर्द भरे लहजे में बताता है कि पेट भरने के लिए कुछ तो करना पडेगा बहनजी। धीरज सिंह वेटर का काम करता है लेकिन कोरोना ने उसे सब्जि का ठेला लगाने पर मजबूर कर दिया वे पिछले एक साल से अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए कोटा रहकर जीवन यापन कर रहा है। उसे जानकारी नही की अब वे अपने गांव फिर से कैसे जा पाएगा।
परिवार वाले मुझे देखकर दुखी होते है

मुरारी लाल का दर्द भी वही जानता है, लेकिन दर्द बयां करते आंसू कुछ बता देते हैं। वह भी बैंड कम्पनी में बाजा बजाता था, लेकिन अब कांधे पर सीमेंट के कट्टे ढो रहा है। मुरारी ने बताया कि उसका दर्द परिजनों से नहीं देखा जाता, लेकिन मैं भी परिजनों का दर्द नहीं देख सकता। बच्चों की आखों की उम्मीदें मुझे झकझोरने लगी तो बोरियंा उठाना शुरू कर दिया। भूखे मरने से बेहतर है कुछ कर लें। ज्यादा नही कुछ तो मिलेगा। धीरे धीरे बोरिया उठाना भी आदत में शूमार हो जाएगा। ये तो कोरोना संकट के उदाहरण है। शहर के कई लोगो के भाग्य को कोरोना ने बदल दिया है।
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