लखीमपुर-खीरी. आजादी को लेकर भारतीयों द्वारा की गई 1857 की क्रांति भले ही विफल रही। मगर इस जंग ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया। देश व्यापी आंदोलन की पुनरावृत्ति को टालने के लिए अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अपनाई। मुस्लिम विरोध को खत्म करने के लिए अंग्रेजों ने समुदाय को दो फाड़ों में बांटने का षडयंत्र रचा। जिसमें उन्हें बड़ी कामयाबी हाथ लगी। समुदाय दो मसलकों में बंटा और अपने-अपने तरीकों से समुदाय के विकास की रणनीतियां बनने लगीं। इससे जंग-ए-आजादी कई वर्षों तक कमजोर पड़ गई।
यूं तो खीरी जिले में इस्लाम का पुराना इतिहास है। 14 शताब्दी में मुगल शासक मोहम्मद तुगलक (1321-1352) ने खैरीगढ़ में अपना किला बनवाया था। इसके बाद 1399 में मलिक सरवर उर्फ ख्वाजा जहां ने जिले पर अधिकार जमाया। लोदी वंश के शासक बहलोद लोदी के कार्यकाल में जिले पर मोहम्मद खां फरमूली का राज चलता था। फरमूली ने अहवक शासक मूलशाह को इस्माल धर्म कुबुलवाकर 989 गांव दे दिए। 1553 में अफगान शासक इब्राहिम सूर ने खीरी परगने का प्रधान यजमान जनवार को नियुक्त किया।
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अकबर के शासनकाल में जिले को आठ महालों में बांटा गया। 24 मई 1565 को खैराबाद जाते समय अकबर ने एक रात खीरी जिले में बिताई थी। शाहजहां के शासनकाल में धर्म परिवर्तन कराकर बाछिल राजपूत छीपी खां को जिले में सत्ता का अधिकार दे दिया गया था। इसके बाद 1779 में सैय्यद खुर्रम ने सत्ता अपने हाथों में ली। उस वक्त इस्लाम का वर्चस्व चरम पर था। जिले के रायपुर, अल्लीपुर भुड़वारा, जलालपुर, कोटवारा, भल्लिया आदि के तालुकेदार रहे अहबन राजपूतों ने धीरे-धीरे इस्लाम कुबुल कर लिया। 1804 में अवध सरकार ने हाकिम मेहंदी अली खां को जिला मोहम्मदी (वर्तमान लखीमपुर-खीरी जिला) व खैराबाद का प्रभारी बनाकर जिले की प्रशासनिक व्यवस्था उसके हाथ में दी। अंग्रेजों ने फरवरी 1856 में नवाबी को समाप्त कर जिले का कम्पनी सरकार में मिला लिया।
1857 की जंगे आजादी में यूं तो हर ओर से विद्रोह की आवाज उठी। लेकिन मुस्लिम ताल्लुकेदारों के विरोध को भी कम नहीं आंका जा सकता। 1857 के ताल्लुकेदारों में राजा अशरफ अली खां जिला मुख्यालय मोहम्मदी के, कप्तान फिदा हुसैन अटवा पिपरिया के, नियामत उल्ला खां जलालपुर के, शासिका चांद बीवी कोटवारा के, सैय्यद नवाब मर्दान अली खां बरवर के व राजा कुदुरतुल्ला खां भुड़वारा के ताल्लुकेदार थे। ताल्लुकेदार अंग्रेज सरकार के सहायक थे मगर 1857 की क्रांति में उन्होंने न केवल अंग्रेजों को सैनिक मदद देने से इंकार कर दिया बल्कि अंग्रेजों के संहार में अहम भूमिका निभाई। हालांकि अंग्रेजों इसके दमन में कामयाब रहे फिर भी यह विद्रोह उनकी रूह हिला गया।
चूंकि इस दौरान वहाबी आंदोलन व वली अल्लाह आंदोलन भी जोरों पर था। अब्दुल अजीज तथा सैय्यद अहमद बरेलवी इसका नेतृत्व कर रहे थे। इस दौरान भारत को दार-उल-हर्ब (काफिरों का देश) बताते हुए दार-उल-इस्लाम पर जोर दिया गया। 1870 को अंग्रेजों ने इस आंदोलन पर बलपूर्वक काबू पाया। लेकिन उन्हें डर था कि मुस्लिम समुदाय फिर खड़ा होगा। लिहाजा समुदाय को दो भागों में बांटने की रणनीति अपनाई गई। इसकी पहल की अंग्रेजों डब्लू हट्टर ने।
उसने ‘इंडियन मुसलमान’ नामक किताब लिखकर सुझाव दिया कि मुसलमान समझौता कर अंग्रेज सरकार से मिल लें। इससे उन्हें फायदा होगा। मुस्लिम हितों को देखते हुए सर सैय्यद अहमद खां ने मुस्लिमों की आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने मुस्लिम सुधारों का बीड़ा उठाते हुए पीर मुरीदी प्रथा व दास प्रथा को खत्म करने को अपना उद्देश्य बनाया।
सर सैय्यद अहमद खां ने 1875 में मुसिलम-एंग्लो ओरियंटल कालेज की स्थापना की। इसमें पश्चिमी शिक्षा दी जाने लगी। धीरे-धीरे यह मुस्लिम समुदाय के धार्मिक व सांस्कृतिक पुर्नजागरण का केंद्र बन गया। यही संस्था आगे चलकर 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनी। सैय्यद अहमद खां ने अपने विचारों को इस्लाम धर्म के पटल पर रखकर मुुस्लिम समुदाय को कांग्रेस व राष्ट्रीय आंदोलन को अलग करने में सफल रहे। दूसरी ओर सैय्यद अहमद खां की विचारधारा के विरोध में कुछ मुस्लिम उल्मा ने देवबंद अभियान चलाया।
इस अभियान का उद्देश्य कुरआन-हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रचार व विदेशी शासकों के खिलाफ जेहाद की भावना जीवित करना था। इस बीच 30 दिसम्बर 1906 को ढाका में नवाब शमीउल्ला खां ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। इस लीग के उदय के साथ ही अंग्रेजों की फूट डालो-राज करो नीति का अनुश्रवण हुआ। अंगे्रजों ने इसे व्यवहारिक रूप प्रदान किया। धार्मिक वैचारिक मतभेद, मुस्लिम लीग का उदय और अंग्रेजों का षडयंत्र मुस्लिम समुदाय के बड़े धड़े को क्रांति से अलग-थलग करने में कामयाब रही। जिले में भी इसका व्यापक असर नजर आया। वैचारिक मतभेद के चलते समुदाय के लोग आपस में ही उलझने लगे।
राजा महमूदाबाद की तकरीर से फिर जागी चेतना
मुस्लिम लीग (वर्तमान पाकिस्तानी राजनैतिक पार्टी) का उद्देश्य अपने समुदाय को राष्ट्रवाद की भावना से अलग कर सिर्फ इस्लाम के प्रति ही जोड़े रखना था। इसके उलट राजा महमूदाबाद धर्म निरपेक्ष सोच के थे। उन्होंने अपनी रियासत का बड़ा हिस्सा क्रांति के लिए न्यौछावर कर रखा था। 1917 में लीग का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। बतौर वक्ता उन्होंने मुस्लिमों में क्रांतिकारी भावना जगाते हुए कहा कि ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि है। हम पहले मुसलमान हैं या भारतीय, यह हमारे लिए प्राथमिकता का प्रश्न नहीं’ उनके विचारों को बल मिला। समुदाय के युवा देश की आजादी में आगे आने लगे।
अंग्रेज डीएम विलोबी की हत्या कर फांसी पर चढ़े थे नसीरुद्दीन मौजी
कलकत्ता अधिवेशन में राजा महमूदाबाद की तकरीर के बाद मुस्लिम युवाओं में देश को आजाद कराने भावना बढ़ने लगी। पहली क्रांति के बाद अंगे्रज सरकार ने मोहम्मदी से हटाकर जिला मुख्यालय लखीमपुर में कर दिया। बकरीद का त्यौहार था। तीन युवकों ने बकरे की बजाए अंगे्रजों की बलि चढ़ाने की योजना बनाई। इस योजना में तत्कालीन जिलाधिकारी आरडब्लूडी विलोबी के साथ-साथ डिप्टी कमिश्नर, पुलिस कप्तान और लाइन इंस्पेक्टर को कत्ल करने योजना थी। 26 अगस्त 1920 को नसीरुद्दीन उर्फ मौजी अपने साथियों बशीर अहमद और माशूक अली के साथ तलवार लेकर सुबह दस बजे डीएम आवास (वर्तमान में विलोबी मेमोरियल हाल) पर पहुंच गया।
उस वक्त विलोबी कुर्सी पर बैठा था। कोई भी सिपाही या नौकर आस-पास नहीं थे। नसीरुद्दीन ने उस पर पहला वार किया। इससे विलोबी बाहर भागा। बरामदे में पहुंचने पर नसीरुद्दीन ने दूसरा वार और विलोबी बरामदगी के आगे स्थित अपनी बाग में गिर गया जहां उसकी मौत हो गई। विलोबी को मौत के घाट उतारने के बाद तीनों ने कसाई टोला के एक घर में शरण ली। इस बीच अंगे्रज पता लगाते-लगाते उस घर तक पहुंच गए और सभी को गिरफ्तार कर लिया। तीनों पर आईपीसी की धारा 302/144 व 144/9 लगाई गई।
न्यायालय में न्यायाधीश ने नसीरुद्दीन उर्फ मौजी से कत्ल का कारण पूछा। जवाब में मौजी ने कहा ‘जितनी कौम निसारा (अंग्रेज) वह इस्लाम का दुश्मन है। मेरे ऊपर फर्ज है कि मैं इनको यानी निसारा को कत्ल करूं’ सीतापुर जेल में एक नवम्बर को मौजी और उसके दोनों साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई। 25 नवम्बर 1920 की सुबह सात बजे अंगे्रजों ने तीनों को फांसी पर लटका दिया।
मुंह चिढ़ाता है विलोबी मेमोरियल हाल
यूं तो अंग्रेज डीएम का कत्ल कर नसीरुद्दीन हंसते-हंसते फांसी पर चढ़े। फिर भी नसीरुद्दीन उर्फ मौजी के सम्मान के साथ न्याय नहीं किया गया। आजादी के कई दशक बाद भी विलोबी के संहार के गवाह डीएम बंगले को ‘विलोबी मेमोरियल हाल’ की संज्ञा दी गई। यह ऐसी सोच थी कि मानों विलोबी कोई महान शख्स था और उसकी याद में इसे स्थापित किया गया। रह-रह कर इसके खिलाफ विरोध के स्वर उठते रहे। आखिरकार इसे परिवर्तित कर भवन का नाम नसीरुद्दीन भवन कर दिया गया। मगर विलोबी के सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी गई। आज भी इसका रखरखाव विलोबी स्मारक ट्रस्ट रखता है।