नदवा कॉलेज में अंग्रेज पढ़ाने वाले मौलाना अनीस नदवी जो की मानें तो तमाम इस्लामिक मामले जैसे शरिया, हदीस आदि को वो बुद्धिजीवी वर्ग नहीं समझ पाता जिसे सिर्फ इंग्लिश आती हैं, क्योंकि ये सब मूलत: उर्दू में उपलब्ध है। अंग्रेजी के जरिए हम उन तक आसानी से पहुंच जायेंगे इसके अलावा जब अग्रेज़ी आएगी तो समाज में आपको फायदा होगा। फिलहाल वह उन्हीं बच्चो को ले रहे हैं जो हमारे यहां पढ़ रहे हैं ताकि वो बाहर जा कर आसानी से अपनी बात रख सके और समझ सकें।
बता दें कि नदवा कोई आम मदरसा नहीं हैं। भारतीय सुन्नी मुसलमानों में इसकी मान्यता देवबंद के दारुल उलूम के बराबर ही है.। यहां पढ़ने वाले सैय्यद इबाद नत्तेर का कहना है कि वह अंग्रेजी विभाग शुरू होने से काफी खुश हैं। इबाद के मुताबिक ,आजकल ज़रूरी हैं कि हम अंग्रेजी जाने. ज़बान सीखने में कोई बुराई नहीं हैं. ये हमारे काम ही आएगी। इबाद सोशल मीडिया, फेसबुक और ट्विटर पर काफी सक्रिय रहते हैं। फिलहाल नदवा में इंग्लिश उन बच्चों के लिए रखी गयी हैं जो अपना धार्मिक कोर्स पूरा करने के बाद बाहर की दुनिया में जा रहे होते हैं. ऐसे छात्र इंग्लिश सीख सकते हैं।
जानें नदवा का इतिहास साल 1893 में नदवातुल उलेमा संस्था के कानपुर में हुए पहले कन्वेंशन में शिक्षण संस्थान बनाने का विचार हुआ। फिर पांच साल बाद 1898 में दारुल उलूम नदवातुल उलेमा की स्थापना की गयी।नदवा की स्थापना का मकसद धार्मिक विशेषज्ञ तैयार करने के अलावा पहले भी यही था कि इस्लामिक थियोलोजी पढ़ाने वाले संस्थानों के पाठयक्रम में आधुनिक युग के हिसाब से बदलाव लाये जाये जिससे देश का सांस्कृतिक विकास हो सके।
दिल्ली के पूर्व राज्यपाल व जामिया के पूर्व वीसी नजीब जंग ने कहा था कि दारुल उलूम देवबंद और लखनऊ का दारुल उलूम नदवा, यह दोनों संस्थान ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी और प्रतिरोध के प्रतीक थे। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश यह संस्थान आज अपने अतीत की छाया मात्र बनकर रह गए हैं जहां छात्रों को इस्लामी शिक्षा तो दी जा रही है लेकिन आधुनिक शिक्षा बहुत कम दी जा रही है। उनके इस बयान के बाद अब हालात बदल रहे हैं, नदवा में अग्रेजी भी पढ़ाई जा रही है
एक वेबसाइट के मुताबिक, इस समय दारुल उलूम देवबंद में भी पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर अंग्रेजी पढ़ाई जाती हैं। जोर इस्लामिक शिक्षण पर हैं और जो छात्र इसको पढ़ना चाहते हैं वो इसको पढ़ते हैं।।भारत के सबसे बड़े इस्लामिक शिक्षण संस्थान दारुल उलूम, देवबंद जो 1866 में स्थापित हुआ था वहां के लोग भी अंग्रेजी के पक्ष में हैं। देवबंद के जनसंपर्क अधिकारी मौलाना अशरफ उस्मानी कहते हैं, “देखिये हम कभी अंग्रेजी के खिलाफ नहीं रहे हैं। हम इसकी हिमायत करते हैं। अब आप बताएं अगर रेलवे रिजर्वेशन फॉर्म भी भरना हैं तो हमें अंग्रेजी या हिंदी आनी चाहिए।