दुनिया में छह प्रतिशत, भारत में डेढ़ फीसदी भी नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक, दुनिया के अधिकांश देशों में सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए जीडीपी का औसतन छह फीसदी खर्च किया जाता है, जबकि भारत में जीडीपी की सिर्फ 1.4 फीसदी रकम ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होती है। मौजूदा दौर में भारत की जीडीपी 152.51 लाख करोड़ रुपए है। इस हिसाब से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में सवा दो लाख करोड़ रुपए खर्च किये जाते हैं, जबकि डब्ल्यूएचओ मानक के मुताबिक यह रकम सालाना नौ लाख करोड़ खर्च होनी चाहिए।
गोरखपुर का उदाहरण समझें तो डरावनी तस्वीर दिखेगी भारत में खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं की तस्वीर देखने के लिए मौजूदा वक्त में गोरखपुर का उदाहरण सटीक रहेगा। पिछले सप्ताह 85 बच्चों की मौत के कारण चर्चित गोरखपुर में जनपद की कुल आबादी 45 लाख है। इस हिसाब से जिले में एक हजार से ज्यादा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए, लेकिन फिलवक्त सिर्फ 529 स्वास्थ्य केंद्र संचालित हैं। इंसेफेलाइटिस के कारण प्रत्येक वर्ष तमाम मौतों का गवाह बनने वाले गोरखपुर शहर में सिर्फ 21 इंसेफेलाइटिस इलाज केंद्र हैं, जबकि शहर में सिर्फ पांच बालरोग विशेषज्ञ हैं। गोरखपुर की यह बानगी समूचे उत्तर प्रदेश और पड़ोसी राज्य बिहार-झारखंड की सच्ची तस्वीर को बयान करने के लिए काफी है।
बुनियादी सुविधाएं नहीं, इसीलिए बड़े अस्पताल पहुंचने में देर गोरखपुर में बच्चों की मौत के मामले में आक्सीजन की कमी को कारण समझा जाए तो बड़े अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी पर सवालिया निशान लगते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, प्रत्येक वर्ष यूपी के पूर्वांचल और बिहार राज्य में इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों के कारण ज्यादा मौतों की वजह प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नहीं होने के कारण बुखार जैसे लक्षण होने पर ग्रामीण देसी अथवा झोलाछाप इलाज करते रहते हैं। हालात खराब होने पर बड़े अस्पताल पहुंचते हैं, लेकिन उस वक्त तक मरीज की हालत बेहद खराब हो चुकी होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की सुविधा होने पर इंसेफेलाइटिस जैसे रोगों की शुरुआत में पहचान मुमकिन होगी।