सीएचआरआई की रिपोर्ट में बताया गया कि केंद्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा कैदियों के विधिक सहायता के लिए जो फंड दिया गया। उसका बेहद कम हिस्सा राज्य सरकारों ने इस्तेमाल किया। इसकी वजह से वित्तीय वर्ष की समाप्ति के बाद बड़ी रकम बिना इस्तेमाल के ही लैप्स हो गयी। इसका क्या कारण है यह स्पष्ट नहीं है। सीएचआरआई की रिपोर्ट के अनुसार उप्र ने तो आवंटित फंड का केवल एक तिहाई हिस्सा ही इस्तेमाल में लिया है।
2016-17 में यूपी को एनएलएसए (नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी) द्वारा 493,63,226 रुपए का बजट दिया गया था। यह बजट प्रदेश को एसएलएसए द्वारा एसएलएसए (स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी) संस्थाओं को कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत विभिन्न कानूनी सहायता योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए मिला था। इसके अलावा राज्य सरकार ने भी अपने मद से एसएलएसए संस्था को बजट दिया था। 2016-17 में यूपी सरकार ने एसएलएसए संस्था को 19,36,17,000 रुपए का बजट आवंटित किया था। इस तरह केंद्र और राज्य का बजट मिलाकर कुल 24,29,80,226 रुपए का फंड बना। लेकिन इसमें से केवल 16,03,14,813 रुपए ही खर्च किए गए। बाकी बचे 8,26,65,413 रुपए लैप्स हो गए। यह कुल आवंटित राशि का एक-तिहाई हिस्सा है।
रिपोर्ट के अनुसार 2016-17 में उप्र में विधिक सहायता को मिली बड़ी राशि में से ज्यादा खर्च तो लोक अदालतों के आयोजनों पर ही खर्च हो गए। इसके अलावा कानूनी प्रतिनिधित्व और कानूनी जागरूकता पर मामूली राशि खर्च की गयी। उप्र ने 56,02,241 रुपए का बजट लोक अदालतों के आयोजन पर खत्म कर दिया गया। यह विधिक सहायता के लिए उप्र में कुल खर्च की गई राशि 16,03,14,813 का 3.44 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमूमन देश में कानूनी जागरूकता और हिरासत में लिए गए व्यक्तियों पर किए गए खर्चों में से सबसे ज्यादा 60 प्रतिशत खर्च अदालतों पर किया जाता है। 30 प्रतिशत कानूनी जागरूकता और केवल 10 प्रतिशत हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को कानूनी मदद दिलाने पर खर्च किया जाता है। लोक अदालतों के आयोजन में बड़ा हिस्सा वकीलों की फीस पर खर्च किया जाता है। जबकि यह गरीब कैदियों की पैरवी के लिए नियुक्त किए गए हैं। लेकिन, कैदियों और बाकी अन्य चीजों पर एक रुपए भी खर्च नहीं किया गया।