रजनी से यह पूछे जाने पर कि आज भी रंगमंच पर पुराने नाटकों का मंचन हो रहा हैं, क्या नए विषय और समसायिक विषय पर नाटक लिखने वाले नाट्य लेखकों की कमी है या नाट्य निर्देशक नए विषय पर रिस्क नही लेना चाहते हैं, इस बारे में उन्होंने कहा कि ऐसी बात नही है आजकल लेखक नए विषय पर नाटक लिख रहे हैं जिनका मंचन भी हो रहा है, थोड़ी सी हिचकिचाहट है नाट्य निर्देशकों को, नए विषयों को लेकर, कि दर्शक उसे कैसे एक्सेप्ट करेगा।
महाराष्ट्र में मराठी, गुजराती और हिन्दी रंगकर्म इतना समृद्ध क्यों हैं। उत्तर प्रदेश में हिन्दी रंगकर्म की स्थिति भयावह होती जा रही है। इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में रंगकर्म के लिए लोगों में अभिरूचि है लोग समय निकाल कर और टिकट खरीदकर नाटक देखने जाते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में नाटक देखने क्रे लिए आम लोग नही जाते, केवल रंगकर्मी ही नाटक देखने के लिए जाते हैं। लखनऊ में खासकर नाटक देखने के लिए टिकट खरीदने में लोग कतराते हैं।
बचपन से नाटक के प्रति समर्पित रही रजनी सिंह ने नशा, त्रासदी, फिर इंतजार, दोहरा रिश्ता, गरीब की परछाई, बिखरे बच्चे सहित उन्होंने अनेकों नाटकों का लेखन किया है। रजनी जीतना नाटकों को लिखने में व्यस्त हैं, उतना ही वह कविताओं के प्रति भी संजीदा हैं उन्होंने अब तक दहाईयों की सीमा लांघती कविताओं का भी सृजन किया है। हवालात, नमक, ऐसिड अटैक, और संझा नाटक ऐसे रहे जिसके द्वारा वह अभिनय की भी साढियां चढ गईं।
लुधियाना में जन्मी रजनी सिंह ने लखनऊ रंगमंच के बारे में कहा कि यहां रंगकर्मियों में रंगकर्म के प्रति समर्पण बहुत कम है। एक सच्चे रंगकर्मी को रंगकर्म और अभिनय के प्रति ईमानदार और कर्मठ होना चाहिए, तभी लखनऊ रंगमंच को कोलकाता और मुम्बई के रंगकर्म की तरह देखा जा सकता है। उन्होंने आगे कहा कि ऐसा नही है कि लखनऊ में गुणी रंग निर्देशकों की कमी है। स्व0 जुगल किशोर और आतमजीत सिंह से रंगकर्म सीख चुकीं रजनी आजकल आकांक्षा थियेटर आर्टस के प्रभात कुमार बोस से अभिनय की बारीकियां आत्मसात कर रही हैं। उन्होंने बताया कि चूंकि प्रभात कुमार बोस फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट पुणे के पासआउट हैं इसलिए उन्हें प्रभात बोस से अभिनय की बारीकियां सीखने में मदद मिल रही है।