बतादें कि सावित्री बाई फुले के पिता बसपा से जुड़े हुए थे। अक्षयवरनाथ कनौजिया की सावित्री के पिता से गहरी मित्रता थी। जब उन्हें पता लगा कि सावित्री को अंकतालिका व प्रमाण पत्र नहीं मिले हैं, तो उसे लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती से मिले। जिस पर सावित्री को तत्काल उसी दिन परिवार वालों को अंकतालिका व प्रमाण पत्र तो मिला ही, मुख्यमंत्री के निर्देश पर उसे नानपारा के कालेज में आगे की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिल गया।
निर्धन दलित परिवार में जन्म लेने वाली सावित्री बाई फूले की महज आठ वर्ष की आयु में परिजनों ने उनकी शादी कर दी, लेकिन उनका गौना नहीं हुआ था। जब उन्होंने होश संभाला और प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत की तो उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को संन्यास के लिए समर्पित करते हुए अपने पति की शादी अपनी छोटी बहन से करा दी। वह अपने जीवन में हार मानने वाली महिला नहीं थीं उन्होंने बुलंद हौसलों, दृढ़ संकल्प के बल पर तीन बार लगातार जिला पंचायत सदस्य का चुनाव जीता। लेकिन भाजपा में आने के बाद ही उनका सियासी कद बड़ा भाजपा में आने के बाद से ही उनका सियासी कद परवान चढ़ा। अब वह भाजपा छोड़ चुकी हैं। वह किस पार्टी में जाएंगी अभी यह निश्चित नहीं है, लेकिन वह २३ दिसंबर को एक बड़ी रैली कर सकती हैं।
विधानसभा चुनाव 2012 में बलहा सुरक्षित विधानसभा सीट से 22 हजार से अधिक मतों से जीतीं। दो वर्ष बाद उन्हें 2014 में भाजपा ने बहराइच सुरक्षित संसदीय सीट से प्रत्याशी बनाया। एक लाख से अधिक मतों से उन्हें फतह हासिल पहली बार संसद पहुंचीं। २०१३ में भाजपा आला कमान ने सावित्री बाई फुले को राष्ट्रीय महिला संवाद प्रभारी पद का गुरुत्तर दायित्व दिया। लेकिन उसी भाजपा से फुले का 2017 में मोह भंग होने लगा।