165 संसदीय सीटों में अब तक घोषित करीब सवा सौ नतीजों में 50 सीटें एमाले के खाते में आ चुकी है जबकि उसके सहयोगी दल मोओवादी केंद्र के खाते में 38 सीटें गई है। अभी जिन 40 सीटों पर गिनती चल रही है उसमें भी एक दर्जन सीटों पर वाम गठबंधन आगे चल रहे है। वाम गठबंधन को सरकर बनाने के लिए किसी दूसरे पार्टी के सहयोग की आवश्यकता नही पड़ेगी। जैसा कि मधेसी दलों के सहयोग की संभावना जताई जा रही थी।
इस चुनाव में एमाले का स्टैंड साफ था। उनके राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु भारत विरोध कामयाब रहा। सरकार में आने के बाद भारत के प्रति उनका रूख क्या होता है यह बाद की बात है। वे इसे चुनावी जुमला भी कह सकते हैं। लेकिन एमाले के साथ मिलकर चुनाव लड़े माओवादी केंद्र को इतनी अधिक सीटें मिलने के पीछे बीच चुनाव में प्रचंड के इकलौते पुत्र प्रकाश दहल के निधन से उपजी सहानुभूति लहर माना जा रहा है। प्रकाश माओवादी केंद्र के केंद्रीय सदस्य के रूप में पार्टी और माओवाद प्रभाव वाले पहाड़ के जिलों में लोकप्रिय युवा नेता रहे है। उनका निधन पहले चरण के चुनाव के ठीक एक सप्ताह पहले हो गया था।
जानकार बताते हैं कि इस पहले चरण के मतदान में करीब दो दजर्न सीटें माओवादी के हिस्से की थी। सात दिसंबर को आखिरी चरण का मतदान खत्म होते ही देर रात वोटों की गिनती शुरू हो गई थी जिसमें माओवादी केंद्र के अधिकांश उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हुए। प्रकाश के असामायिक निधन से उपजे सहानुभूति लहर का सिलसिला अंतिम चरण के वोटिंग तक जारी रहा।
यहां गौर करने की बात यह है कि चुनाव में दोनों पार्टियों में 60 और 40 प्रतिशत के सीटों पर समझौता हुआ था। संसद की 165 सीटों में 60 प्रतिशत सीटों पर एमाले और 40 प्रतिशत सीटों पर माओवादी के्रद्र चुनाव लड़े थे। इस समझौते पर प्रचंड तैयार नही थे। वे बराबर बराबर सीटों की मांग पर अड़े थे लेकिन उनके स्वर्गीय पुत्र प्रकाश की पहल पर समझौता हुआ और प्रकाश ने ही अपनी पार्टी के लिए मनमााफिक सीटों की चयन की थी। मैदान से लेकर पहाड़ तक किन सीटों पर माओवादी उम्मीवार चुनाव लड़ेंगे इसका फैसला भी स्व प्रकाश ने ही किया था। चुनावी विसात की उनकी रणनीति कामयाब हुई और माओवादी केंद्र को कम सीटों पर लड़कर अधिक सीटों पर विजय हासिल हुई।
पहाड़ के कई जिला मुख्यालयों पर देखा गया कि जैसे जैसे माओवादी के पक्ष में नतीजे आ रहे थे वैसे वैसे माओवादी समर्थकों की आंखों से खुशी और गम के आंसू भी छलक रहे थे। उन्हें अपनी पार्टी की जीत के साथ युवा नेता और इस चुनाव के खास रणनीतिकार स्व. प्रकाश के इस मौके पर अपने बीच न होने का गम था।
चुनाव परिणाम वाम गठबंधन के पक्ष में आने के बाद अब सरकार बनाने के फार्मूले पर चर्चा शुरू हो गई है। नेपाल में साझा सरकार का फार्मूला बहुत कामयाब नही रहा है। आम चुनाव के पहले की करीब छह सरकारो का कार्यकाल बहुत विवादित रहा है। स्वयं एमाले और माओवादी समझौते से बनी नेपाली कांग्रेस के पहले की सरकार विवादों से घिरी हुई थी। सत्ता को लेकर दोनों के बीच खूब रस्साकसी हुई थी। भारत के हस्तक्षेप से नेपाली कांग्रेस के समझौते से प्रचंड की सरकार बन सकी थी। चुनाव के पूर्व प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के बीच गठबंधन की अटकलें थी। बाद में अप्रत्याशित तौर पर प्रचंड ने एमाले के साथ गठबंधन कर लिया। दोनों दलों के महत्वाकांक्षा में कमी नहीं है और दोनों ही अपेक्षाकृत समझौतावादी भी नही है।
इस चुनावी रणनीति के मुख्य सूत्रधार प्रचंड के पुत्र प्रकाश भी अब नही है, जो दोनों के बीच समझौते का रास्ता बनाते, ऐसे में सरकार में भागीदारी को लेकर एमाले और माओवादी केंद्र के बीच अहं टकराने के अंदेशें से इनकार नही किया जा सकता। बहरहाल नेपाली जनता ने स्थाई सरकार के लिए पूर्ण जनादेश दे दिया है। वे बहाने बाजी नही अब एक समृद्ध और तेजी से विकास पथ पर चलता हुआ नेपाल देखना चाहते हैं। वरना नजीर सामने है! नेपाली जनता को नेपाल की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी नेपाली कांगे्रस को आइना दिखाने में देर नही लगी।