उस वक्त भी बीजेपी और आज भी बीजेपी
6 दिसंबर 1992 के दिन जब विवादित ढांचा को ढहाए गया तो जहां केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो उत्तर प्रदेश की सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा था। आज 25 साल बाद जब इस मामले पर सबसे बड़ी और अहम सुनवाई होने जा रही है तब केंद्र और राज्य दोनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के सात साल बाद इस मामले पर देश की सबसे बड़ी अदालत सुनवाई करने जा रही है। इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए अदालत ने 11 अगस्त को 9000 पन्नों के ट्रांसलेशन का काम शुरु करने को कहा था। दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो दस्तावेजों की भाषा को लेकर फंस गया। इस मामले के दस्तावेज अरबी, उर्दू, फारसी और संस्कृत समेत 7 भाषाओं में है। जो करीब 9 हजार पन्नों का है।
90 हजार पन्नों की गवाही
164 साल पुराने अयोध्या विवाद में 90 हजार पेज में गवाहियां दर्ज हुई हैं। अकेले उत्तर प्रदेश सरकार ने ही 15 हजार पन्नों के दस्तावेज जमा कराए हैं। हाईकोर्ट ने तीन भाग में बांटी थी जमीन
7 साल पहले 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया था। पीठ के जजों ने अपने फैसले में विवादित 2.77 एकड़ की जमीन को इसके तीन बराबर में बराबर बांटने के आदेश दिए। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा था कि वर्तमान में जिस स्थान पर रामलला की मूर्ति है, रामलला वहीं विराजमान रहेंगे।
7 साल में 20 याचिकाएं दायर
इस फैसले खिलाफ एक हफ्ते बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 14 दिसंबर 2010 को बोर्ड ने पहली याचिका दायर की। इसके बाद तो इस मामले पर याचिकाओं की बाढ़ सी आ गई और सात साल में एक के बाद 20 याचिका दाखिल हुई।
सुनवाई से पहले बदल गए 7 प्रधान न्यायाधीश
9 मई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे तो लगा दिया लेकिन सुनवाई नहीं शुरु हो सकी। सात साल बाद इस केस को भारत के प्रधान न्यायाधीश जेसएस खेहर ने 11 अगस्त 2017 को पिटीशन लिस्ट लिया। इन सात साल में सुप्रीम कोर्ट के सात प्रधान न्यायाधीश बदल गए।
देश के सबसे पुराने इस केस पर 5 दिसंबर, 2017 दिन मंगलवार को दोपहर 2 बजे सुनवाई शुरु होगी। इसके लिए तीन जजों की बेंच गठित की गई है, जिसमें खुद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा भी हैं। इस केस का रोचक पक्ष ये भी है कि खुद भगवान राम इसके पक्षकार हैं। रामलला की ओर से हरीश साल्वे हैं जबकि सुन्नी वक्फ बोर्ड का पक्ष कपिल सिब्बल और राजीव धवन हैं।
17 साल में लिब्राहन आयोग ने दी रिपोर्ट
16 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद इसकी जांच के लिए लिब्राहन आयोग का गठन किया गया। इसके 17 साल बाद जुलाई 2009 में आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इन 17 सालों में इस मामले में कई मोड़ लिए और कई सरकारें बदल गईं। अप्रैल 2002 में विवादित ढांचे के मालिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरु की। जो अब सुप्रीम कोर्ट आ चुका है और इसकी सुनवाई भी तीन जजों की पीठ ही करेगी।
पत्रिका.कॉम को अयोध्या से जुड़ी तस्वीरें सीनियर फोटो जर्नलिस्ट केदार जैन के उपब्लध करवाई हैं। जो खुद विवादित ढांचा गिराए जाने के समय अयोध्या में मौजूद थे।