मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मुंबई पुलिस के असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर दिवंगत तुकाराम ओंबले की बड़ी बेटी वैशाली कहती हैं, “पापा के साथ मेरा रिश्ता बहुत गहरा था और उनकी मौत के बाद मुझे लगता है कि मैं अकेली हो गई हूं।” मुंबई हमले जैसी खौफनाक घटना के एक दशक बीतने के बावजूद वैशाली और उसके परिवार वालों को भरोसा है कि तुकाराम ओंबले एक दिन लौटेंगे।
वैशाली कहती हैं, “अभी भी मुझे लगता है कि किसी भी पल दरवाजा खुलेगा और पापा घर वापस लौट आएंगे, हालांकि मुझे पता है कि यह संभव नहीं है।” मुंबई हमले में तुकाराम की बहादुरी का किस्सा किसी से छिपा नहीं है। जिस स्थान पर कसाब को पकड़ने के लिए तुकाराम ने अपनी जान दे दी थी, उनके इस प्रयास की सराहना के चलते गिरगांव चौपाटी पर उनकी अर्ध-प्रतिमा लगाई गई है।
तुकाराम ओंबले के परिवार ने उनकी चीजों को उसी तरह संजोकर रखा है। वैशाली की मानें तो, “हम उन्हें रोज याद करते हैं। मेरी बहन की बेटी जो पापा की मौत के बाद पैदा हुई थी, हमसे उनके बारे में और वो कब लौटेंगे यह पूछती है। हम सभी उससे कहते हैं कि वो अभी ड्यूटी पर गए हुए हैं और एक दिन घर वापस आएंगे।”
गौरतलब है कि 27 नवंबर 2008 को असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम ओंबले की मौत कसाब की गोलियां लगने से हो गई थी। यह वाक्या उस दौरान हुआ जब तुकाराम और उनकी टीम चौपाटी पर पहुंची और उन्हें एक स्कोडा कार आती दिखी, तो उन्होंने कार रोकने की कोशिश की और निहत्थे तुकाराम कसाब को काबू में करने के लिए उस पर झपट पड़े।
वैशाली कहती हैं, “केवल उनके प्रयासों के चलते ही 26/11 हमले का इकलौता आतंकी पकड़ा जा सका और उसे फांसी पर चढ़ाया गया।” उस रात कसाब और उसके साथी पहले ही छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर गोलियों की बौछार कर चुके थे। इसके बाद कामा हॉस्पिटल की ओर जाते वक्त उन्होंने तीन वरिष्ठ पुलिस इंस्पेक्टर को मार दिया था, जिनमें हेमंत करकरे भी शामिल थे। इन दोनों ने एक स्कोडा कार छीन ली थी, जिसे तुकाराम ने रोकने की कोशिश की थी।
वैशाली, प्रदेश जीएसटी विभाग में एक अधिकारी का पद संभालने वाली अपनी बहन भारती और मां तारा के साथ वर्ली पुलिस कैंप में रहती हैं। वैशाली ओंबले कक्षा आठ तक के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर खुद को व्यस्त रखती हैं। घटना के बाद मुंबई पुलिस इस परिवार के साथ खड़ी है और हमेशा केवल एक फोन कॉल की दूरी पर रहती है।
वैशाली कहती हैं, “अब भी जब हम दुनिया भर में होने वाले आतंकी हमलों को देखते हैं, हमें पीड़ितों और इसमें जान देने वालों के परिवारों के दर्द का अहसास होता है। इन्हें रोकने के लिए प्रयास करने चाहिए। न केवल सरकारों बल्कि आम आदमी की भी जिम्मेदारी है कि वे दुनिया को आतंकमुक्त बनाएं।”