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मेघालय का एक ऐसा गांव जहां नाम से नहीं धुन से एक दूसरे को बुलाते हैं लोग

साल 2000 में यहां पहली बार बिजली पहुंची, जबकि पहली कच्ची सड़क 2013 में बनी।

Sep 20, 2018 / 12:23 pm

Shivani Singh

meghalaya

मेघालय का एक ऐसा गांव जहां नाम से नहीं धुन से एक दूसरे को बुलाते हैं लोग

नई दिल्ली। जब बच्चे का जन्म होता है तो सबसे पहले बात उठती है उसका नाम क्या रखा जाए। पूरा परिवार, नाते-रिश्तेदार बच्चे के नए-नए नाम बताने में लग जाते हैं और ऐसा हो भी क्यों ना। किसी की भी पहचान उसके नाम से होती है, लेकिन भारत में एक ऐसा गांव है जहां लोग अपने अपनों को नाम से नहीं बल्कि संगीत की धुन से बुलाते हैं। देश के पूर्वोत्तर में बसे मेघालय में स्थित कॉन्गथॉन्ग गांव में अक्सर अलग-अलग प्रकार की धुन और चहचहाहट सुनाई देती है। जो इससे वाकिफ नहीं, वे इसे पक्षियों की आवाज समझ लेते हैं, लेकिन हकीकत इससे जुदा है। यहां लोग एक-दूसरे को उनके वास्तविक नाम से न पुकारकर जीवनभर कोई खास धुन निकालकर ही बुलाते हैं।

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500 साल पुरानी परंपरा

खासी समुदाय की मूल पौराणिक मां से जुड़ी इस परंपरा को ‘जींगरवई लॉवई’ या ‘कबीले की पहली महिला का गीत’ के नाम से जाना जाता है। इसकी शुरुआत कैसे हुई, इसके बारे में यहां के लोगों को ज्यादा तो नहीं पता, लेकिन उनका मानना है कि यह परंपरा करीब 500 साल पुरानी है, जिसे यहां के लोग संजोकर रखे हैं। लोगों का कहना है कि कॉन्गथॉन्ग और आसपास के गांवों में ज्यादातर खासी जनजाति के लोग रहते हैं। यहां मां अपने बच्चे के लिए एक खास संगीत या धुन बनाती है। इसके बाद हर कोई उसे पूरी जिंदगी उसी धुन से बुलाता है।

धुनों पर रखें जाते है नाम

वहीं, जब इस बारे में वहां रहने वाले लोगों से पूछा गया तो तीन बच्चों की मां पेंडप्लिन शबांग ने बताया कि अपने बच्चे के लिए एक खास संगीत उनके दिल की गहराइयों से निकलता है। फिर उसी संगीत से बच्चों को पूरी जिंदगी बुलाया जाता है। कुछ नाम बॉलीवुड के गीतों से प्रेरित होकर रखे गए हैं। प्रकृति के बीच बसे इस गांव में धुनों पर बने नाम औसतन करीब 30 सेकंड तक लंबे होते हैं।

2013 में बनी थी पहली कच्ची सड़क

आपको बता दें कि लंबे समय तक बाकी दुनिया से कटे रहे कॉन्गथॉन्ग में मूलभूत सुविधाएं पहुंचने में काफी वक्त लगा। इस गांव के ज्यादातर घर लकड़ी से बने हैं। यहां से शहर तक पहुंचने के लिए कई घंटों की कठिन यात्रा करनी पड़ती है। जानकर हैरानी होगी की साल 2000 में यहां पहली बार बिजली पहुंची, जबकि पहली कच्ची सड़क 2013 में बनी। यहां के ज्यादातर लोगों का समय जंगल में बांस खोजने में बीतता है, जो उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है।

तुर्की, और स्वीडन में भी है ऐसी अनोखी परंपरा

तुर्की के गिरेसुन प्रांत में करीब 10 हजार लोग रहते हैं। ये एक-दूसरे से पक्षियों की भाषा (बर्ड लैंग्वेज) में बात करते हैं। यूनेस्को इसे सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल कर चुका है। स्वीडन और नार्वे में भी ऐसी परंपरा है।

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