इस बारे में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अमूमन लोग अपनी आस्था के लिए कोई स्रोत तलाशते हैं। इससे बाहर न तो राजनेता हैं और न ही विशिष्ट जन भी शामिल होते हैं। नेताओं की इसी आस्था को ये संत और बाबा भुनाते हैं। इनकी शरण में जाने से व्यक्ति को यह भ्रम होने लगता है कि उसकी जिम्मेदारियां निभाने में कोई बाबा या दैवीय शक्ति उसके साथ है। ऐसे में अगर उसके जीवन में कुछ भी अच्छा होता है तो वह व्यक्ति इसे बाबा का आशीर्वाद समझता है और हमेशा के लिए उसका भक्त बन जाता है।
भारत में चमत्कार को नमस्कार करने की पुरानी परंपरा है। अधिकतर बाबा इसी परंपरा का फायदा उठाते हैं और अपने धंधे की शुरुआत छोटे-मोटे हाथ की सफाई दिखाकर करते हैं। दक्षिण भारत के सत्य साईं बाबा तो हाथ की सफाई के लिए खूब चर्चित थे। आसाराम के बारे में कहा जाता है कि वो हिप्नोटिज्म में एक्सपर्ट्स थे। इसी तरह देवराहा बाबा हठ योग में प्रज्ञ थे। साईं बाबा तो कभी हवा में से राख तो कभी सोने की चेन निकालकर उन्होंने करोड़ों भक्त और अरबों रुपये कमाए।
बाबाओं के आश्रम बेहद आलीशान और भव्य होते हैं। इन आश्रमों में चारों तरफ बाबा के जयकारे गूंज रहे होते हैं। लोग बाबा के ध्यान में लीन होते हैं। बाबा का गुणगान करते भजन आश्रम में बज रहे होते हैं। फूल मालाओं से लदी बाबा की तस्वीरें जगह-जगह लगी होती हैं। यह माहौल इतना भव्य होता है कि यहां आने वाला लगभग हर व्यक्ति इससे प्रभावित जरूर होता है। ऐसे बाबाओं से पहली मुलाकात में या इन भव्य आश्रमों में पहली बार जाने पर अक्सर लोगों को एक सुखद अनुभव होता है। यह पूरी तरह से एक मनोवैज्ञानिक भ्रम के चलते होता है।
भव्य आश्रमों में रहने वाले ऐसे बाबाओं के अधिकतर भक्त स्थायी होते हैं। खास बात यह है कि इन भक्तों में अधिकतर लोग पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से संपन्न होते हैं। ऐसे असुरक्षा का भाव लोगों को आसानी से बाबाओं तक पहुंचा देता है। जिन लोगों में कुछ खोने का भाव होता है उनकी निर्भरता ऐसे बाबाओं पर सबसे ज्यादा होती है। यह भी मजेदार है कि देश का सबसे कम पढ़ा-लिखा वर्ग, जो दिन में बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाता है और संभवतः सबसे ज्यादा तकलीफ झेलता है। वह वर्ग किसी भी तरह के बाबाओं से बेहद दूर है। ऐसे राजनेताओं में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी, राजीव गांधी , पीवी नरसिम्हा राव, लाल कृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, चंद्रशेखर, मायावती आदि शामिल हैं। इतना ही नहीं विदेशी राजनेता भी इनके सान्निध्य में आते रहे हैं।
अब बाबाओं के पास जाने का एक प्रमुख कारण वोट बैंक के रूप में सामने आया है। जैसे बाबा रामपाल, बाबा राम रहीम, बाबा आसाराम, स्वामी नित्यानंद आदि शामिल हैं। बाबाओं का ये रूप इसलिए भी सामने आया है कि राजनेता इनसे नजदीकी गांठकर उनके भक्तों का समर्थन हासिल करने लगे हैं। बाबा रहीम मामले में ये बातें खुलकर सामने आई थी कि किसी भी राजनीतिक दल के नेता उनके आशीर्वाद व समर्थन बचे नहीं रहे। कुछ साल पहले जब बाबा रामदेव उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर गए थे तो वहां होटल मालिकों ने उन्हें ठहराने के लिए बोलियां लगाई थीं।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि परेशान और निराश लोग सबसे जल्दी और सबसे आसानी से बाबाओं की ओर आकर्षित होते हैं। अमूमन परेशानी के समय लोगों की चेतना और तर्क शक्ति कमज़ोर हो जाती है और लोग त्वरित समाधान खोजने लगते हैं। इसका फायदा ये बाबा लोग उठाते हैं। हर बड़े बाबा का एक पूरा तंत्र होता है जो लोगों को जोड़ने का काम करता है। यह तंत्र बाबाओं को ही लोगों की परेशानी के एकमात्र समाधान के रूप में पेश करने का काम करता है।
बाबाओं के चमत्कार की पोल खोलने के लिए कुछ प्रगतिशील संस्थाएं और उनसे जुड़े लोग अपनी जान जोखिम में डालकर भी काम करते हैं। इन्हीं में से एक चर्चित संस्था महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति है। इसकी स्थापना साल 1989 में नरेंद्र दाभोलकर ने की थी। लेकिन ढोंगी संतों और बाबाओं का पर्दाफाश करने की कीमत उन्हें अपनी जान गंवाकर चुकानी पड़ी1 2013 में कुछ लोगों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद भी उनकी संस्था लगातार अंधविश्वास के खिलाफ कार्यरत है। संस्था के उपाध्यक्ष डॉक्टर प्रदीप पाटकर का कहना है कि जादू के प्रति इंसान में एक स्वाभाविक उत्सुकता होती है। जब किसी जादू या हाथ की सफाई को धर्म या भगवान से जोड़कर पेश किया जाए तब तो लोग और भी आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। ऐसे बाबाओं के पास लोग अपनी समस्या के सीधे समाधान के लिए पहुंचते हैं और बुद्धू बनकर लौट जाते हैं।