रिपोर्ट के अनुसार- कुर्द इलाके में इस परंपरा के खिलाफ ‘वादी’ नाम की एनजीओ ने जबर्दस्त अभियान छेड़ा हुआ है। इसे 35 वर्षीय रसूल चला रही हैं, जिन्होंने बचपन में खुद ‘खतने’ का दर्द झेला है। रिपोर्ट के अनुसार- वे घर-घर जाकर लोगों को इसके नुकसानों के बारे में समझा रही है, जो धर्म के नाम मासूम बच्चियों से किया जा रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार- एक समय में इराक के कुर्द इलाके में बच्चियों/महिलाओं के बीच ‘खतना’ बहुत सामान्य बात थी। किंतु ‘वादी’ के अभियान ने काफी हद तक इस संबंध में महिलाओं की सोच बदली है। इस वजह से इलाके में बच्चियों के ‘खतने’ की संख्या में की आई हे।
महिलाएं बदल रही हैं इमाम की सोच रिपोर्ट में कहा गया है कि रसूल क्षेत्रीय राजधानी अरबिल के पूर्व में स्थित शरबती सगीरा गांव में ‘खतने’ के खिलाफ जागरुकता के लिए और इस परंपरा को बंद कराने के लिए 25 बार जा चुकी हैं। वह गांव के इमाम की सोच को बदलने की कोशिश कर रही हैं। जो सह सोचते हैं कि ‘खतना’ इस्लामिक परंपरा है। यहां तक कि वह गांव की प्रशिक्षित दाईयों को खतने से होने वाले नुकसान, उसके कारण वर्षों तक होने वाले रक्तस्राव, संक्रमण के खतरों और मानसिक प्रताड़ना के संबंध में भी समझा रही हैं।
कानून में बदलाव कई अभियानों के बाद कुर्द प्राधिकार ने 2011 में ‘खतने’ को घरेलू हिंसा कानून के तहत शामिल किया था। इसके तहत ‘खतना’ करने वालों के लिए अधिकतम तीन साल की सजा और करीब 80,000 अमरीकी डॉलर के जुर्माने का प्रावधान है।
2014 में हुआ था 58.5% महिलाओं का ‘खतना’ कानून बनने और एनजीओ के अभियानों के बाद ‘खतना’ करने की संख्या में कमी जरूर आई है।यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार- 2014 में कुर्द क्षेत्र की करीब 58.5 प्रतिशत महिलाओं का ‘खतना’ हुआ था।