मूवी रिव्यू

Master Movie Review: मारधाड़ से भरपूर ठेठ रजनीकांत स्टाइल की फिल्म, जिसमें शराबी और टपोरी हीरो मसीहा है

तमिल में बनी ‘मास्टर’ ( Master Movie ) का हिन्दी में डब संस्करण भी सिनेमाघरों में
सब कुछ ‘लार्जेस्ट देन लाइफ’, हीरो मल्टी पर्पज मिसाइल से कम नहीं
कबड्डी में धूल उड़ाती मारधाड़ उत्तर भारत के दर्शकों लिए नया तजुर्बा

Jan 14, 2021 / 07:56 pm

पवन राणा

Master Movie Review

-दिनेश ठाकुर

क्या आपने ऐसा प्रोफेसर देखा है, जो हमेशा नशे में लडख़ड़ाता रहता हो? जिसे घर से छात्र सोफे समेत उठाकर कॉलेज लाते हों। जो सड़क पर टपोरी की तरह घूमता हो। जो पढ़ाता कम हो, मारधाड़ ज्यादा करता हो। जो रजनीकांत ( Rajinikanth ) की तरह ‘स्टाइल में रहने का’ पर कदमताल करता हो। सड़क पर खड़े ऑटो रिक्शे से टांगें बाहर निकाल कर सोता हो। अगर नहीं देखा, तो ‘मास्टर’ ( Master Movie ) देख लीजिए। इसमें रजनीकांत के नक्शे-कदम पर चलने वाले विजय ने ऐसा ही ‘सर्वगुण सम्पन्न’ किरदार अदा किया है। इस तमिल फिल्म को हिन्दी में भी डब कर सिनेमाघरों में उतारा गया है। जो लोग सिनेमाघरों में सीटियां और तालियां बजाकर पैसा वसूल करने में यकीन रखते हैं, दक्षिण में उन्हें यह फिल्म अपनी इस प्रतिभा के मुजाहिरे का भरपूर मौका दे रही है।

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लोकेश कनगराज की तीसरी एक्शन थ्रिलर
मसाला फिल्मों में सब कुछ ‘लार्जर देन लाइफ’ होता है। तमिल फिल्मों में ‘लार्जेस्ट देन लाइफ’ हो जाता है। वहां हीरो मल्टी पर्पज मिसाइल की तरह होते हैं। बदमाशों को जमीन से जमीन पर मार सकते हैं। जमीन से हवा में मार सकते हैं। हवा से हवा में भी मार सकते हैं। ‘सिंघम’, ‘दबंग’, ‘राउडी राठौड़’ जैसी हिन्दी फिल्मों ने इस तरह की मारधाड़ तमिल फिल्मों से ही सीखी। एक्शन थ्रिलर ‘मानगरम’ और ‘कैथी’ के बाद निर्देशक लोकेश कनगराज ने अपनी तीसरी फिल्म ‘मास्टर’ को भी मारधाड़ से भरपूर रखा है। उन्होंने छह-सात मिनट के कबड्डी के सीन में जो धूल उड़ाती मारधाड़ दिखाई है, वह उत्तर भारत के लोगों के लिए नया तजुर्बा हो सकती है। मुमकिन है कि किसी हिन्दी फिल्म में भी ऐसी हिंसक कबड्डी देखने को मिल जाए।

प्रोफेसर उर्फ ‘मास्टर’ का किस्सा
आम तौर पर प्रोफेसर कॉलेज के छात्रों और प्रबंधन से परेशान रहते हैं। ‘मास्टर’ में यह दोनों शराबी प्रोफेसर (विजय) से परेशान हैं। जब पानी सिर से गुजरने लगता है, तो प्रोफेसर को एक जुवेनाइल होम के लड़कों को पढ़ाने का जिम्मा सौंपा जाता है। वहां के लड़कों को भवानी (विजय सेतुपति) नाम के बदमाश ने जुर्म की दुनिया में धकेल रखा है। आगे अच्छाई और बुराई की वही लड़ाई, जो जाने कितनी फिल्मों में दोहराई जा चुकी है।

दो विजय, दोनों की एंट्री पर धमाल
दक्षिण में विजय सेतुपति भी सितारा हैसियत रखते हैं। ‘मास्टर’ में इनकी एंट्री पर भी सीटियां-तालियां बजती हैं और हीरो विजय की एंट्री पर भी। यानी मामला सत्तर के दशक की उन हिन्दी फिल्मों जैसा है, जिनमें अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना साथ होते थे। ‘मास्टर’ की हीरोइन मालविका मोहनन को ज्यादा कुछ नहीं करना था। नायक-खलनायक की कहानी में हीरोइन पर्दे की सजावट से ज्यादा कर भी क्या सकती है। तकनीकी लिहाज से फिल्म में खामी नहीं है। फोटोग्राफी अच्छी है और बैकग्राउंड म्यूजिक भी घटनाओं के अनुकूल है।

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इंटरवल के बाद रफ्तार धीमी
इंटरवल से पहले तक ‘मास्टर’ में जो चुस्ती-फुर्ती है, वह बाद में बरकरार नहीं रह पाई। फिल्म कुछ ज्यादा ही लम्बी है। इस लम्बाई को संभालने के लिए पटकथा में कसावट जरूरी थी, जो नहीं की गई। जुवेनाइल होम के लड़कों को जुर्म की दुनिया से निकालने के लिए नशे और ड्रग्स के खिलाफ विजय का लेक्चर देना गले नहीं उतरता। विजय सेतुपति को इतना ताकतवर दिखाया गया है कि ‘दामिनी’ के सनी देओल की तरह उनका एक मुक्का पडऩे के बाद आदमी उठता नहीं, ‘उठ’ जाता है। उन्हीं सेतुपति को विजय क्लाइमैक्स में रुई की तरह धुनते हैं। जब निर्देशक की मेहरबानी हीरो पर हो रही हो, तो खलनायक की भलाई इसी में रह जाती है कि वह अपनी ताकत को जेब मे रखकर चुपचाप पिटता रहे।

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