तकनीकी भव्यता के बजाय भावनाओं पर जोर
बुकर प्राइज जीतने वाले अरविंद अडिगा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित ‘द व्हाइट टाइगर’ कभी सआदत हसन मंटो की बेबाक कहानी की तरह लगती है, तो कहीं इसमें धूमिल की खरी कविताओं की आहट सुनाई देती है। एक कविता में धूमिल सवाल उठाते हैं- ‘लोहे की छोटी-सी दुकान में बैठा हुआ आदमी सोना/ और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी/ मिट्टी क्यों हो गया है?’ यह फिल्म भी इसी तरह के चुभते हुए सवाल उठाती है। अपनी फिल्मों में तकनीकी भव्यता के बजाय भावनाओं पर जोर देने वाले रमीन बहरानी की ‘द व्हाइट टाइगर’ सनद है कि किसी चर्चित किताब को सलीकेदार फिल्म में कैसे बदला जाता है। बढ़ते शहरीकरण ने एक वर्ग के लिए खुशहाली की जमीन तैयार की, तो कई गुना बड़े दूसरे वर्ग की हालत बदतर होती गई। ‘द व्हाइट टाइगर’ कहती है कि भारत में दो ही वर्ग हैं- शोषक और शोषित। शोषितों में कभी-कभार ही शोषकों के खिलाफ तनकर खड़ा होने वाला कोई ‘सफेद बाघ’ पैदा होता है।
खुशहाली के छोटे रास्तों की खोज
फिल्म में यह ‘सफेद बाघ’ बिहार के गांव से दिल्ली पहुंचा पिछड़े वर्ग का बलराम हलवाई (आदर्श गौरव) है। अमरीका से लौटे रईस राजकुमार राव के यहां ड्राइवर की नौकरी करते हुए वह महसूस करता है कि धन दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। हर बुराई पर यह ताकत पर्दा डाल सकती है। बड़े शहरों में उसके जैसों के सपने रोज कुचले जाते हैं। वह ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ पर भरोसा करने वालों में से नहीं है। अपनी खुशहाली के रास्ते खोलने के लिए वह राजकुमार राव की हत्या कर उसका धन समेटता है और बेंगलुरू भाग जाता है। जुर्म कैसे दबाए जाते हैं, वह ड्राइवर की नौकरी करते हुए सीख चुका है। देखते ही देखते वह बड़े कारोबारी के तौर पर उभरता है।
विचलित करने वाले प्रसंग
क्लाइमैक्स से पहले तक ‘द व्हाइट टाइगर’ खासी चुस्त-दुरुस्त है। छोटी-छोटी घटनाएं गहरी बात कह जाती हैं। रईस खानदान में मामूली ड्राइवर की नौकरी करते हुए बलराम में यह समझ आ जाती है कि अमरीका को जितनी तरक्की करनी थी, कर चुका। अब वक्त भूरे (भारत) और पीले (चीन) बाघों का है। राजकुमार राव की अमरीका में पली-बढ़ी प्रेमिका (प्रियंका चोपड़ा) ( Priyanka Chopra ) भारत में गरीबों के साथ जानवरों से बदतर बर्ताव देखकर विचलित होती है, लेकिन उसके प्रेमी के खानदान के लिए यह आम बात है। प्रियंका चोपड़ा से कार हादसा हो जाने के बाद बड़े आराम से बलराम को मना लिया जाता है कि वह हादसे की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ले।
शुक्र है, सभी ‘सफेद बाघ’ नहीं हैं
आखिरी रीलों तक आते-आते फिल्म कुछ कमजोर पड़ जाती है। एक झटके में मामूली ड्राइवर का रईस हो जाना हजम नहीं होता। यह भी हजम नहीं होता कि सिर्फ गलत तरीकों से कोई मालामाल हो सकता है। भारत में करोड़ों लोग मेहनत, हौसले और ईमानदारी से गुजर-बसर कर रहे हैं। क्या जरूरी है कि सभी नकली और उधार की खुशहाली के लिए ‘सफेद बाघ’ बन जाएं। बहरहाल, क्लाइमैक्स से पहले तक तीखे तेवर वाली यह फिल्म अमीर-गरीब वर्ग की मनोदशा, ऊंच-नीच के भेदभाव और भ्रष्टाचार की गहरी पड़ताल करती है। सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया गया है। ठेठ देहाती के किरदार में आदर्श गौरव का चेहरा फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी देर तक पीछा करता है। शायरी में जैसे किसी खास शेर को ‘हासिले-गजल’ (गजल का हासिल) कहा जाता है, उसी तरह आदर्श गौरव यहां ‘हासिले-फिल्म’ कलाकार हैं। हां, स्वरूप संपत को अर्से बाद इस फिल्म में देखा। हैरानी हुई कि अब वह भी फर्राटे से गालियां देने लगी हैं।