बचपन से ही कर रहीं दूसरों की मदद नंदा बचपन से ही दूसरों का दुख देखकर द्रवित होती रहीं। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने सहपाठियों की फीस के लिए नगरसेवकों, ट्रस्टों और दूसरे मददगारों के दरवाजे ठकठकाना शुरू कर दिया। देखते-ही-देखते वे “बेसहारों का सहारा” के रूप में चर्चित होने लगीं। जिसे भी कहीं कोई दिक्कत आती वह नंदा के पास पहुंच जाता।
दूसरों के लिए जीने में सुख नंदा ने बताया कि विवाह के बाद वे ससुराल आईं तो पति समझ नहीं पा रहे थे कि झोपड़े में रहने वाले दूसरों की मदद कैसे कर सकते हैं! शुरू में बहुत-सी परेशानियां आईं। हमारे बीच कुछ समय तक अनबन रही, पर धीरे-धीरे मेरे पति को यह बात समझ में आ गई कि दूसरों के लिए जीना कितना सुखद होता है।
शेख साहब का मिला साथ नंदा ने बताया कि एक बार परिवार आर्थिक तंगी में फंस गया। उस समय मेरे सिर पर शेख साहब ने परिवार को संभाला। वे नेत्रहीनों के लिए संस्था चलाते हैं। 2006 से मैं उनके साथ काम करने लगी। आज वे मेरे पिता हैं, मां हैं और गुरु भी। मेरे पति कारपेंटर का काम करते हैं, मैंने भी इस काम की बारीकियां सीखीं। हम कारपेंटर का ठेका लेते हैंं।
एक सपना जिसे करना है पूरा अपने दो बेटों-बहुओं और एक पोते के साथ सुखी जीवन जीने वाली नंदा की आंखों में अब बस एक ही सपना है। वे चाहती हैं कि म्हाड मेंं एक अनाथ आश्रम, वृद्धा आश्रम और नेत्रहीनों के लिए एक स्कूल खुल जाए, जहां वे पढऩे-लिखने के साथ दूसरे कार्य सीख सकें। इसके लिए वे म्हाड के गांव दहिवड में अपनी तीन एकड़ जमीन ट्रस्ट के नाम कर चुकी हैं।