अलवर के थानागाजी बलात्कार प्रकरण सहित अन्य मामलों में गिरने के बाद राज्य सरकार ने खुद का बचाव करने के लिए एफआईआर को लेकर पुलिस अधिकारियों को दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जबकि जीरो एफआईआर का प्रावधान पिछले साढ़े छह साल से है। हर पुलिस स्टेशन का एक अधिकार क्षेत्र होता है। यदि किसी कारण से परिवादी अपने अधिकार क्षेत्र वाले थाने में नहीं पहुंच पा रहे या उन्हें इसकी जानकारी नहीं है तो जीरो एफआईआर के तहत वे सबसे नजदीकी पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करवा सकते हैं। जीरो एफआईआर में क्षेत्रीय सीमा नहीं देखी जाती। इसमें अपराध कहां हुआ है, इससे कोई मतलब नहीं होता। इसमें सबसे पहले रिपोर्ट दर्ज की जाती है। इसके बाद सम्बन्धित थाना जिस क्षेत्र में घटना हुई है, वहां के अधिकार क्षेत्र वाले पुलिस स्टेशन में एफआईआर को प्रेषित कर देते हैं। यह प्रावधान सभी के लिए किया गया है। इसका मकसद ये है कि अधिकार क्षेत्र (ज्युरिडिक्शन) के कारण किसी को न्याय मिलने में देर न हो और जल्द से जल्द शिकायत पुलिस तक पहुंच जाए।
जीरो एफआईआर का कॉन्टेप्ट दिसम्बर 2012 में हुए निर्भया केस के बाद आया। निर्भया केस के बाद देशभर में बड़े लेवल पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। अपराधियों के खिलाफ लोग सडक़ पर उतरे थे। इसके बाद जस्टिस वर्मा कमेटी रिपोर्ट की अनुशंषा के आधार पर एक्ट में नए प्रावधान जोड़े गए। दिसम्बर 2012 में हुए निर्भया केस के बाद न्यू क्रिमिनल लॉ (संशोधन) एक्ट, 2013 आया।
जीरो एफआईआर का प्रावधान भले ही साढ़े छह साल पहले कर दिया गया हो, लेकिन परिवादी आज भी थानों के बीच एफआईआर दर्ज करवाने के लिए चक्कर काटते हैं। पुलिस अधिकारी कभी अधिकार क्षेत्र का बहाना बनाकर तो कभी मामला परिवाद में रखने का कहकर एफआईआर दर्ज करने से आनाकानी करते हैं। कई बार परिवादी जब थक-हारकर पुलिस अधीक्षक के समक्ष पेश होते हैं तो इस बात का जिक्र करते हैं कि वे फलां तारीख को थाने में पेश हुए, लेकिन थानाधिकारी ने मामला दर्ज नहीं किया। एसपी के निर्देश पर दर्ज होने वाली एफआईआर में इस बात का हवाला भी दिया जाता है।
थाने में दर्ज नहीं होने वाली एफआईआर को एसपी ऑफिस में दर्ज करने को लेकर अभी हमारे पास सर्कुलर नहीं आया है। सरकार ने महिला अपराधों को लेकर यह निर्देश दिए हैं, जैसे ही सर्कुलर मिलेगा, व्यवस्था कर देंगे।
– सरजीतसिंह मीणा, कार्यवाहक एसपी, नागौर