बेनीवाल को लेकर बोले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, अब पछताएंगे जिन्दगी भर
पार्टियों की खिलाफत ने बनाया लोकप्रिय
क्या कारण हैं कि खींवसर से रालोपा विधायक हनुमान बेनीवाल नागौर ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में ऐसे नेता बन चुके हैं, जिनके लिए युवाओं में जोश सिर चढकऱ बोलता है। बेनीवाल के एक इशारे में हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। वर्ष 2003 में पहली बार ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल से नागौर के मूण्डवा विधानसभा से चुनाव लडकऱ दूसरे स्थान पर रहने वाले बेनीवाल वर्ष 2008 में भाजपा से तथा वर्ष 2013 में निर्दलीय तथा 2018 में रालोपा से चुनाव लडकऱ विधानसभा में पहुंच चुके हैं। वर्ष 2008 में भाजपा के टिकट से खींवसर से विधायक बनने के बाद वसुंधरा राजे की खिलाफत करने पर पार्टी से निष्कासित होने के बाद विधायक बेनीवाल ने ज्यों-ज्यों भाजपा और कांग्रेस का विरोध किया, त्यों-त्यों उन्हें लोग पसंद करने लगे।
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किसान व युवा की बात पर जोर
किसान व युवा की बात करने वाले बेनीवाल किसानों, युवाओं व सरकार विरोधी ह कार्यक्रम, आंदोलन एवं सम्मेलन में शामिल हुए। 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले पूरे प्रदेश की दीवारें एक नारे से पुत गईं, ‘कांग्रेस सरकार ने क्या दिया? सूचना का अधिकार दिया।’ उधर, नागौर की दीवारों पर मोटे काले अक्षरों और हरी हाईलाइटिंग में लिखी एक इबारत सत्ताधारी पार्टी के नारे को चुनौती दे रही थी। यह इबारत थी, ‘चश्मे का निशान होगा, अगला मुख्यमंत्री किसान होगा।’ चश्मा यानी ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का चुनाव चिन्ह। चौटाला के पिता चौधरी देवीलाल का राजस्थान से पुराना नाता रहा है।
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कभी करना पड़ा था हार का सामना
1989 के लोकसभा चुनाव में वो राजस्थान की सीकर सीट से चुनाव जीते थे। देवीलाल जाटों के नेता थे और उनकी नजर राजस्थान की जाट पट्टी पर थी, लेकिन वो अपने इस एजेंडे पर आगे नहीं बढ़ पाए थे। उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने पिता के एजेंडे पर आगे बढऩा शुरू किया। उन्होंने 2003 के चुनाव में 50 जाट बाहुल्य सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, इनमें से चार उम्मीदवार विधानसभा पहुंचने में कामयाब भी रहे थे। हनुमान बेनीवाल को बीजेपी का टिकट नहीं मिला था, लिहाजा उन्होंने लोकदल का दामन थाम लिया और अपने पिता की परम्परागत मूंडवा सीट पर मैदान में उतर गए। इस चुनाव में मूंडवा में मुकाबला बहुत दिलचस्प था, बीजेपी ने इस सीट से ऊषा पूनिया को मैदान में उतारा था। ऊषा पूनिया पूर्व विधायक गौरी पूनिया की बहू थीं। कांग्रेस की टिकट पर लड़ रहे थे हबीबुर्रहमान। इस त्रिकोणीय संघर्ष में ऊषा पूनिया को 39,027, हनुमान बेनीवाल को 35,724 वोट और हबीबुर्रहमान को 32,479 वोट मिले। इस तरह हनुमान बेनीवाल यह मुकाबला 3,303 वोट से हार गए।
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मिर्धा की हार के बाद मिली पहचान
किसानों का नेता नागौर सीट की पहचान राजस्थान के बड़े जाट राजनीतिक घराने ‘मिर्धा’ की वजह से रही है। 1971 से 1998 तक लगातार यह सीट मिर्धा परिवार के किसी ना किसी सदस्य के पास रही। नागौर विधानसभा सीट का हिसाब-किताब भी कुछ इसी तरह का रहा। 1957 में नाथूराम मिर्धा यहां से विधानसभा पहुंचे, 1962 में रामनिवास मिर्धा, इसके बाद ये दोनों नेता केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए। नागौर विधानसभा अगर 1980 और 1991 को छोड़ दें तो यह सीट लगातार कांग्रेस के कब्जे में रही और कांग्रेस का टिकट उसे मिलता था जिसे मिर्धा देना चाहते थे। रामनिवास मिर्धा के बेटे हरेन्द्र मिर्धा 1993 और 1998 में नागौर सीट से विधायक रहे थे, वो 2003 में बीजेपी के गजेंद्र सिंह खींवसर के हाथों चुनाव हार गए। हरेंद्र मिर्धा के चुनाव हारने की वजह से उनके परिवार के सियासी रसूक पर काफी बट्टा लगा। हरेन्द्र मिर्धा की हार के बाद नागौर में नए जाट चेहरे को उभरने के लिए खाली जगह दी। इसके बाद नए नया चेहरा उभरकर सामने आया-हनुमान बेनीवाल का।