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राजस्थान पत्रिका की नींव में श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने डाले निष्पक्षता और निर्भीकता के रंग, जानिए क्या क्या किए संघर्ष?

राजस्थान पत्रिका बहुत ही हर्षोल्लास के साथ आज अपने संस्थापक कर्पूर चन्द्र कुलिश जी का जन्मदिन मना रहा है। आइए आज हम जानते हैं कि राजस्थान पत्रिका की नींव में श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने डाले निष्पक्षता और निर्भीकता के रंग कैसे डाले और पत्रकारिता को शिखर तक पहुंचाने के लिए क्या क्या संघर्ष किए?

नई दिल्लीMar 20, 2024 / 08:20 am

Anand Mani Tripathi

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अखबार स्वतंत्र हो, उस पर किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति का प्रभाव न रहे लेखनी पर कोई बन्दिश न रहे। निष्पक्षता व निर्भीकता के श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश के इस मंत्र को पत्रिका ने आत्मसात कर रखा है। सही मायने में इसी मकसद को पूरा करने के लिए कुलिश जी ने 7 मार्च 1956 को एक सायंकालीन दैनिक के रूप में राजस्थान पत्रिका का पौधा लगाया था जो आज विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है। आज भी पत्रिका की समूह की रीति-नीति के केन्द्र में पाठक और कर्म को इंगित करता हुआ व्यापक जनहित ही रहता है। इन सिद्धांतों के निर्वाह में कुलिशजी को भी बहुतेरा संघर्ष करना पड़ा था। सरकारों की नाराजगी झेलते हुए संघर्ष करते रहने का दृढ़संकल्प आज कुलिश की तीसरी पीढ़ी में भी कायम है।

टोंक जिले के सोडा गांव में 20 मार्च 1926 को मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे कुलिशजी की प्रारम्भिक शिक्षा मालपुरा कस्बे में हुई। हाईस्कूल की पढ़ाई जयपुर में की। अद्भुत मेधा के धनी कुलिशजी के लिए एक संवेदनशील कवि, निर्भीक पत्रकार, प्रखर लेखक, विचारक और विद्वान वेदज्ञ के रूप में स्थापित होने में केवल स्कूल तक की पढ़ाई बाधा नहीं रही। स्वाध्याय में गहन रुचि और ज्ञान पिपासु प्रवृत्ति ने उनको ऐसे चिन्तक के तौर पर विकसित किया जिसने प्रत्येक कार्यक्षेत्र में प्रतिमान बनाए।

पच्चीस वर्ष की आयु में दैनिक अखबार ‘राष्ट्रदूत’ से जुडऩे से पहले कुलिशजी जयपुर में मंच के लाड़ले कवि के रूप में पहचान बना चुके थे। इसी बीच कुछ नौकरियां भी की। लेकिन उनका यायावर मन इनमें कहीं रमा नहीं। हाई स्कूल के बाद ‘साहित्य सदावर्त’ में शिक्षक के तौर पर जुड़कर अहिन्दी भाषी समुदायों में हिन्दी के उन्नयन का कार्य किया। लय-छन्द में गुंथे उनके गीतों में प्रेम की पीड़ा, विरह की व्यथा, मिलन की प्रतीक्षा के साथ ही अनहद नाद के स्वर अद्भुत आनन्द बरसाते। कण्ठ भी मन्त्रमुग्ध करता। कवि सम्मेलनों से ख्याति और थोड़ी आय भी मिलने लगी। किन्तु कुलिशजी की तृषा कुछ और ही थी जो गीत में अभिव्यक्त हुई-‘कब बुझेगी अचिर की चिर प्यास मेरी।’ उनकी यह जिजीविषा कालान्तर में उनके प्रत्येक कर्म में लक्षित भी होती रही। कर्मयोगी कुलिशजी ने जिस पथ पर भी पग बढ़ाए, उनका प्रयाण अमृत की आकांक्षा में रहता। परिणाम भी सामने आते रहे।

कुलिश जी ने जब राजस्थान पत्रिका के रूप में समाचार पत्र की नींव रखी तब प्रदेश में अखबार तो और भी थे। पर स्वतंत्र कोई नहीं था। वे किसी न किसी राजनीतिक दल के सहारे खड़े थे। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रहती है। वह पत्रकारों को प्राप्त नहीं थी। अपने आत्मकथ्य ‘धाराप्रवाह’ में कुलिश जी ने इस बात का उल्लेख भी किया था कि ऐसा लगा जैसे अखबार की नौकरी करते हुए उन पर नजर रखी जा रही है कि वे क्या लिखते हैं? अभिव्यक्ति की आजादी पर बंधन की स्थिति से मुक्त होने की छटपटाहट ने ही ‘राजस्थान पत्रिका’ को अस्तित्व में ला खड़ा किया।

कुलिशजी ने पत्रिका को हिन्दी पत्रकारिता जगत् में शिखर पर प्रतिष्ठित किया। मित्रों से मिले पांच सौ रुपए के ऋण से प्रारम्भ हुआ ‘सायंकालीन पेपर’ अपने तेवर और साख की बदौलत पौधे से वटवृक्ष के रूप में विकसित हुआ। सुबह का अखबार पाठकों के विस्तृत ‘पत्रिका परिवार’ में उजाला फैलाने लगा। आज आठ राज्यों में ३८ संस्करणों के साथ पत्रिका समूह कुलिशजी के घोष ‘य ऐषु सुप्तेषु जागर्ति’ यानी ‘सोए हुओं में जागने वाला’ को नित्य फलीभूत कर रहा है।

स्मृति में डाक टिकट

राजस्थान पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चन्द्र कुलिश के सम्मान में भारतीय डाक तार विभाग ने 12 जुलाई 2012 को डाक टिकट जारी किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस डाक टिकट को जारी किया। तत्कालीन केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट भी इस मौके पर मौजूद रहे।

20 फरवरी 1983 : हल्दीघाटी पुरस्कार
महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन की ओर से 1983 का हल्दीघाटी पुरस्कार श्रद्धेय कपूर्र चन्द्र कुलिश को प्रदान किया गया। यह पुरस्कार लेखन के माध्यम से समाज में जागरुकता फैलाने के लिए दिया गया। 20 फरवरी 1983 को यह पुरस्कार प्रदान किया गया।
28 मार्च 1990: गोयनका पुरस्कार
इंडियन एक्सप्रेस समूह की ओर से 1987-1988 में पत्रकारिता के क्षेत्र में दिया जाने वाला प्रतिष्ठित बी.डी.गोयनका पुरस्कार कुलिश जी को प्रदान किया गया।

19 मई 2000: गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार
हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक योगदान के लिए प्रतिष्ठित गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार श्रद्धेय कपूर्र चन्द्र कुलिश को देने की घोषणा की गई। 19 मई 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन से यह पुरस्कार उनके ज्येष्ठ पुत्र गुलाब कोठारी ने नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में प्राप्त किया। राष्ट्रपति ने प्रशस्ति पत्र,नकद राशि व शॉल प्रदान कर सम्मानित किया।
18 जुलाई 1993: डॉ.हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार
कोलकाता के प्रसिद्ध बड़ा बाजार कुमार पुस्तकालय संस्थान की ओर से श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश को १९९३ का प्रतिष्ठित डॉ.हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार प्रदान किया गया।


1976: मैं देखता चला गया
आपातकाल के दौरान संपूर्ण राजस्थान के दौरे में कुलिश जी के यात्रा वृतांत के १५० आलेख जो राजस्थान पत्रिका में छपे उनका संकलन है।
20 मार्च 1995: कुलिश
कवि ह्रदय कुलिश जी की काव्य यात्रा की बहुरंगी झलक। उनकी बिखरी हुई काव्य रचनाओं में से स्मृति के आधार पर तथा मित्रों से प्राप्त कर पुस्तक का रूप दिया गया।
20 मार्च 1996: हस्ताक्षर
कुलिश जी की पैनी दृष्टि की झलक। उन्होंने १९६९ से १९८६ के बीच पत्रिका के मुख पृष्ठ पर जो समय-समय पर जो संपादकीय लिखे वे इस पुस्तक में संकलित किए गए हैं।
1997: धाराप्रवाह
सवाल-जवाब से निकली कुलिश जी की जीवनधारा से जुड़ी इस पुस्तक को धाराप्रवाह का नाम दिया गया। यह पुस्तक कुलिश जी से साक्षात्कार पर आधारित है।


दिसंबर 1998: पोलमपोल
राजस्थान पत्रिका में पोलमपोल कॉलम में ‘भायाजी’ के नाम से लिखे कुलिश जी के चुने हुए ३७२ दोहों का प्रकाशन। कॉलम अब ‘भायो’ के नाम से जारी है।

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