चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान
बिखेरी और फिर नए नेताजी को कंधे पर हाथ रख एकांत में ले गए.. बोले- डरना बिल्कुल नहीं.. यहां ‘खाओ और खाने दो’ का सूत्रवाक्य चलता है.. वैसे भी ‘खाने’ के लिए पार्टियां बदलते रहने में भला बुराई किस बात की… मुझे देखो .. किसी एक पार्टी के भरोसे कभी नहीं रहा.. रात देखा न दिन.. आव देखा न ताव… जब भी कहीं से पार्टी का न्योता मिला फुर्ती से दौड़ पड़ा। देख नहीं रहे.. पार्टी… पार्टी’ करते अपनी सेहत कितनी ‘दुरुस्त’ हो गई है…। पर इस बात की क्या गारंटी है कि वहां सभी ‘खाने वाले’ ही होंगे।
‘गारंटी’ कोई नहीं दे रहा
पार्टी में ही कोई कह रहा है- ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’.. डर सा लग रहा है। खाते रहने की ही आदत है जो है। तो अभी कौनसी ‘पार्टी’ खत्म हुई है.. यहां मौका नहीं मिले तो दूसरी में जाकर खा लेना। तोंद पर हाथ फेरते नेताजी ने समझाया। बात समझ में तो आ रही है लेकिन ‘गारंटी’ कोई नहीं दे रहा। यही गारंटी न कि खातेे रहो .. कोई कुछ नहीं कहेगा। ‘पार्टीबाजी’ में आनंद तो है पर खतरे भी कम नहीं। कहीं खाया-पिया हजम नहीं हुआ तो? मन में शंका हो गई है ..तो फिर पार्टीबाजी से ऊपर उठने का मौका भी तो है।