जबलपुर। आदिवासी, नाम सुनते ही ऐसे लोगों की छबि सामने आती है जो पुरानी संस्कृति और परंपराओं के साथ जीवन यापन करते हैं। भले ही ये अपनी परपंराओं का पालन सदियों से कर रहे हैं, लेकिन इनकी कला जो भी देखता है देखता ही रह जाता है। इनकी इस कला की डिमांड देश में ही नहीं विदेशों में भी है। आज हम आपको ऐसे ही आदिवासी कलाकारों से रू-ब-रू करा रहे हैं। जिन पर शॉर्ट फिल्म भी बन चुकी है।
डिंडोरी जिला निवासी तुर्क सिंह मरावी उम्र 85 वर्ष ने बताया कि परंपरागत रूप से लोहा ढालने का काम वे पीढिय़ों से कर हैं। अब भी लोहा पिघलाकर ये जरूरी औजार बनाते हैं। भट्टी जलाकर लोहे को पिघलाया जाता है। इनका कहना है कि हंसिया, हथौड़ा, फावड़ा आदि खुद ही बनाते हैं। बाजार से इन्हें नहीं खरीदा जाता। इस काम में इनकी पत्नी भी सहयोग करती है। इन पर एक शॉर्ट फिल्म अगरिया…लोहे की लौ भी बन चुकी है।
रेशम की बुनाई कर रहे आदिवासी ने बताया कि कपड़ा महंगा होता है। साइज के आधार पर चार से पांच मीटर एक दिन में तैयार कर लिया जाता है। इनका कहना है कि सौ से डेढ़ सौ रूपए ही मिल पाता है और इन्हें मुनाफा मिलना चाहिए।