इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बीते सात दशकों में देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आर्थिक क्षेत्र हो, सैन्य हो अथवा विज्ञान और तकनीक का मामला, हम दुनिया की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बनाने में कामयाब रहे हैं। लेकिन ये भी हकीकत है कि पिछले कुछ सालों में विचारधारा की टकराहट भी बढ़ी है। राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति का अभाव होता जा रहा है। ये टकराहट देश संसद के भीतर भी देखता है और सड़क पर भी। संसदीय कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठने लगे हैं। संसद का हर सत्र टकराव से शुरू होकर हंगामे के बीच सिमटकर रह जाता है। महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श की परम्परा क्षीण होती जा रही है। एक-दूसरे पर व्यक्तिगत प्रहारों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है।
गणतंत्र दिवस के मौके पर इन मुद्दों पर भी विचार होना चाहिए। पक्ष-विपक्ष को आत्मचिंतन करना चाहिए कि चूक आखिर कहां हो रही है? आमजन से जुड़े मुद्दों पर संसद में ठीक ढंग से बहस क्यों नहीं हो रही? संसद का कार्यकाल सिर्फ खानापूर्ति तक क्यों सिमटता जा रहा है? किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन रास्ता देश को ही तलाशना होगा। हम अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहने में गर्व महसूस करते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक परम्पराओं का निर्वहन ईमानदारी से नहीं करते। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव अथवा विधानसभा अध्यक्षों की कार्यशैली पर उठने वाले सवालों का जवाब तलाशने के लिए कोई पहल होती नहीं दिख रही। हर मामले में न्यायपालिका को बीच में डालने की परम्परा के मायने यही हैं कि सरकार और राजनीतिक दल अपनी भूमिका में खरे नहीं उतर पा रहे। गणतंत्र दिवस की सार्थकता तभी साबित मानी जाएगी जब टकराव का रास्ता छोड़ सभी राजनीतिक दल आम सहमति का रास्ता तलाशने में सफल होकर दिखाएं।