इतना ही नहीं, देश की राजधानी दिल्ली भी इन दिनों इसी तरह के राजनीतिक ड्रामे का गवाह बनी है। आम आदमी पार्टी को अपने विधायकों के खरीदे जाने का डर सता रहा है। पार्टी प्रमुख एक-एक विधायक को २५-२५ करोड़ रुपए के ऑफर की बात को हवा में उछाल चुके हैं। अब पुलिस उनके घर जाकर उनसे सबूत मांग रही है। कहने का आशय यह है कि जोड़-तोड़ की राजनीति हर जगह हावी होती दिखती है। अपने विधायकों और सरकारों को चुनने वाले मतदाता खामोशी से इस तमाशे को देख रहे हैं। और कर भी क्या सकते हैं? सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि जनकल्याण की चिंता करते हुए राजनीति में आने वाले राजनेता आखिर ऐसे खेल को बढ़ावा क्यों देते हैं? चुनाव में हारने वाला राजनीतिक दल अपने आप को पूरे पांच साल तक विपक्ष की राजनीति के लिए समर्पित क्यों नहीं करना चाहता?
दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है कि जब जिसे मौका मिलता है, तब हर राजनीतिक दल इस खेल में शामिल हो जाता है। बड़ी वजह यह भी है कि दलबदल कानून के प्रावधानों में भी गलियां निकाल ली गई हैं। जनता जिस दल के लिए किसी राजनेता को जनादेश देती है वह जनादेश का सम्मान करने की बजाय पाला बदलने लगे तो इससेे ज्यादा शर्मनाक स्थिति और क्या होगी? पिछले दरवाजे से सत्ता पाने की लालसा ही राजनीति में आती जा रही गिरावट का सबसे बड़ा कारण है। अभी समय है जब सभी राजनीतिक दल इस तरह के खेल को बंद करने पर एकराय बना सकते हैं। अन्यथा जितनी देर होती जाएगी, बाजी हाथ से निकलती जाएगी।