ज्ञातव्य है कि परम्परागत कृषि विकास योजना, जैविक खेती के मूल सतत आधार अनुरूप कृषि के परंपरागत ज्ञान को आधुनिक कृषि विज्ञान की पद्धतियों के साथ समाहित कर मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए लागू की गई एक महत्त्वपूर्ण योजना है। इसी संदर्भ में प्राकृतिक खेती को भी कृषि लागत में कमी करते हुए रसायन मुक्त एवं गुणवत्तायुक्त प्राकृतिक उत्पाद की प्राप्ति के उद्देेश्य के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। जैव विविधता के संरक्षण और मृदा स्वास्थ्य के प्रबंधन के लिए भी यह उपयोगी है। नीति आयोग एवं संयुक्त राष्ट्र ने भी खेती के टिकाऊपन के लिए अपने कार्य क्षेत्रों में इसकी आवश्यकता महसूस की है।
विगत दशकों में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने के अभियान कर्नाटक, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र के किसानों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा असंगठित रूप से किए गए। आंध्रप्रदेश सरकार ने अपने राज्य के 6 लाख से अधिक किसानों को योजनाबद्ध रूप से इस पद्धति के कार्यक्रम से जोड़ा है, जिसमें 4 लाख से अधिक किसानों द्वारा पूर्व में भी जैविक खेती पद्धति को अपनाया हुआ था।
गुजरात के डांग जिले में भी, राज्य सरकार के सहयोग से लगभग 19600 हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जा रही है, जिसका आगामी लक्ष्य 57000 हेक्टेयर तक किया गया है। वन आच्छादित ( 77 प्रतिशत) एवं प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण इस जिले में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए, बिना बाहरी कृषि आदानों से कम लागत वाली प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए समर्थन दिया जा रहा है। कर्नाटक राज्य ने भी अपने 10 जलवायु खण्डों में शुरुआती रूप से 2000 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर ये पद्धति लागू कर रखी है। इस दिशा में इन राज्यों के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं केरल ने भी किसानों के लिए इसकी आवश्यकता जताई है।
जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग सुभाष पालेकर द्वारा दी गई प्राकृतिक खेती की एक उन्नत विधि है, जिसे पूर्व में कर्नाटक राज्य में अपनाया गया था। सिंचित क्षेत्रों एवं रासायनिक खेती करने के अनुसंधान परिणामों में इस खेती के मुकाबले अधिक उत्पादन प्राप्त होता देखा गया है, तो भी इस पद्धति से प्राप्त रसायन मुक्त प्राकृतिक उपज, जैव विविधता संरक्षण एवं पारंपरिक खेती के उत्पाद के साथ-साथ कृषि लागत में कमी करने के लाभ को नकारा नहीं जा सकता है। अत: इस पद्धति के मूल उद्देश्यों एवं लागू करने के लिए क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखते हुए उन्नत तकनीकी विकसित करने की आवश्यकता है।
देश की जनजातीय उपयोजना क्षेत्र में शामिल दक्षिण राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं गुजरात राज्य के जनजातीय जिलों के छोटी जोत के किसान अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। जलवायु एवं विषम भौगोलिक परिस्थितियों में वर्षा पोषित खेती से ये अधिकतम उत्पादन प्राप्त नहीं कर पाते हंै। इन क्षेत्र विशेषों को लक्षित करते हुए इस पद्धति में परंपरागत मिश्रित फसल की उन्नत कृषि तकनीकी का समावेश कर अनुसंधान उपरांत इसे लागू किया जा सकता है। इसमे कृषि लागत में कमी कर गुणवत्तायुक्त प्राकृतिक उत्पाद के साथ-साथ जैविक एवं मृदा संरक्षण का कार्य भी सहज हो सकेगा।