बीते वर्षों में ओटीटी प्लेटफार्म ने जिस तरह ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ का मखौल उड़ाया, समाज के सभी वर्गों में उसे नियंत्रण में लाने की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। कोरोना काल के पहले उसकी पहुंच एक सीमित वर्ग तक होने के कारण कला की इस नवीनतम विधा के प्रति समाज और सरकार भरसक निरपेक्ष रही। इस निरपेक्षता के कारण इसे सामाजिक वैमनयस्ता की जमीन पर विकसित होने की मानो छूट मिल गई। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि इसकी जड़ें आज भी हॉलीवुड में ही हैं। नकल की हड़बड़ी में ओटीटी मंच, संस्कृतियों के फर्क को समझने की जरूरत ही नहीं समझ रहा। मुश्किल तब हुई जब कोरोना काल में सिनेमाघर बंद होने और टीवी पर नए कार्यक्रमों के नहीं आने से इसने मनोरंजन के सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में आमजन तक अपनी पहुंच बना ली।
जाहिर था सरकार पर इस माध्यम को नियंत्रित करने का दबाव बढ़ा, और सरकार ने इस माध्यम को व्यवस्थित करने के लिए एक दिशा-निर्देश की घोषणा कर दी। निर्देश में पूरी जवाबदेही ओटीटी मालिकों पर छोड़ते हुए प्रसारण पूर्व किसी तरह के प्री-सेंसरशिप की बात भी नहीं कही गई। स्वाभाविक है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को नख-दंत विहीन बताया है। वास्तव में ओटीटी कंटेंट जिस तरह करोड़ों दर्शकों तक एक साथ पहुंचता है, और उसे डाउनलोड कर सुरक्षित रख लेने की सुविधा है, पोस्ट-सेंसरशिप बेमानी है। एक ओर ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ की आवाज, दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती से जाहिर है, सरकार के सामने संतुलित दिशा-निर्देश का निर्माण चुनौती ही होगा। आने वाले दिनों में देखना दिलचस्प होगा, नियमों के बीच से ओटीटी मंच अपनी आजादी का कोई रास्ता निकाल तांडव जारी रखता है, या हमें और बंदिश बैंडिट्स देखने को मिल सकती हैं।
(लेखक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक हैं)