scriptआर्ट एंड कल्चर: महात्मा गांधी की सिनेमाई आभा | Art and Culture: Mahatma Gandhi's Cinematic Aura | Patrika News

आर्ट एंड कल्चर: महात्मा गांधी की सिनेमाई आभा

locationनई दिल्लीPublished: Oct 02, 2020 03:07:12 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

आजादी के बाद के हिन्दी सिनेमा में विचार के धरातल पर गांधी की उपस्थिति सदा रही है

 

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उदारीकरण के दौर में भारत में बच्चों की कितनी ही पीढिय़ां हर २ अक्टूबर और ३० जनवरी को दूरदर्शन पर रिचर्ड एटनबरो की क्लासिक ‘गांधी’ देखते हुए बड़ी हुई हैं, जो कई मायनों में अविस्मरणीय है और महाकाव्यात्मक शैली में गांधी के जीवन को सम्पूर्णता में प्रस्तुत करने की सफल कोशिश करती है। सिनेमाई गांधी की तलाश में इससे आगे चलें तो गांधी के जीवन का अबसे अनछुआ हिस्सा, उनका दक्षिण अफ्रीका में बिताया जीवन श्याम बेनेगल की ‘मेकिंग ऑफ महात्माÓ में जिंदा होता है, जिस पर गांधी की सुपरह्यूमन ‘महात्मा’ छवि का बोझ नहीं है।

कमल हासन की ‘हे राम’ दर्शक को गांधी की हत्या को अंजाम देने वाले के ‘फैनेटिक’ मस्तिष्क के भीतर ले जाने का चुनौतीपूर्ण काम करती है। 21वीं सदी में राजकुमार हीरानी ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में बहुत नायाब तरीके से नई पीढ़ी को गांधी के मूल्यों से परिचित करवाते हैं।

यहीं सवाल उठता है कि क्या एटनबरो की ‘गांधी’ से पहले हिन्दी सिनेमा की दशकों लंबी समृद्ध विरासत में गांधी को पूरी तरह अनुपस्थित मान लिया जाए? जवाब है – नहीं। गांधी केवल व्यक्ति भर नहीं, विचार हैं। क्लासिक ‘दो बीघा जमीन’ में बिमल राय के रचे ‘शंभू’ से लेकर राज कपूर के ‘राजू’ तक पचास के दशक का सिनेमाई नायक गांधी के ही आदर्श गांव का प्रतिनिधि रहा।
बीआर चोपड़ा की ‘नया दौर’ से लेकर व्ही शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ तक पचास के दशक के ‘गोल्डन एरा’ की अमिट फिल्में गांधी के सिद्धांतों से प्रेरणा पाती रहीं। गांधी की अदृश्य उपस्थिति ‘नेहरुवियन आधुनिकता’ के लिए वैचारिक विपक्ष भी बनी और नैतिक बल भी।
‘गाइड’ के अंतिम हिस्से में भी जहां देव आनंद द्वारा निभाया किरदार वृहत्तर भलाई के लिए स्वार्थ का रास्ता छोड़ आस्था की आत्महंता डोर पकड़ लेता है, गांधी के नैतिक बल की उपस्थिति साफ पढ़ी जा सकती है। आशुतोष गोवारिकर की ‘स्वदेश’ में नायक का नाम मोहन होना संयोग भर नहीं है। विदेश से भारत लौटा नायक यहां ग्रामीण भारत में मौजूद जिस जातिगत और आर्थिक भेद को मिटाने के संघर्ष में कूदता है, गांधी के विचारों की आभा उस ‘बल्ब जलाने’ की छोटी सी लड़ाई में आज भी जिंदा है।
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