उनकी कला का सबसे बड़ा संग्रह तो शांति निकेतन में ही है, पर अन्य जगहों पर भी उनके चित्र सुरक्षित हैं। जैसे राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, जयपुर हाउस, नई दिल्ली में भी उनके चित्र देखे जा सकते हैं। यह एक सुखद बात है कि प्रकाशन विभाग ने उनकी कला पर रणजीत साहा लिखित एक पुस्तक इस वर्ष प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘रवीन्द्रनाथ की कला सृष्टि’। निश्चय ही हिन्दी में अपने ढंग की यह पहली पुस्तक है। इसका महत्त्व इस बात में भी है कि यह रवीन्द्रनाथ के बहुतेरे चित्रों से भी सुसज्जित है। उनकी कला का जानकारी पूर्ण सम्यक विवेचन तो इस में है ही। उनकी कला से जुड़े कई तथ्य हैं, स्वयं कला पर रवीन्द्रनाथ के विचार हैं।
रणजीत ठीक ही नोट करते हैं – ‘सबसे अहम बात है, उनके रंग विन्यास की सटीकता। अपने रूपाकार को चाहे वे जितनी बार रेखाओं से सुधारें-संवारें, रंगों के अनुयोग में अधिक सतर्क दीखते हैं। कभी-कभी प्रगाढ़ व सघन रंगों के परस्पर विरोधी, संघाती या विषम प्रयोग से उनके चित्रों में अतिरिक्त या अप्रत्याशित प्रभाव उत्पन्न हो गया है, जो उनके भावकों को चमत्कृत कर देता है।’
हां, वे कई रूपों में चमत्कृत करते हैं। अपनी विविधता में भी। रवीन्द्रनाथ के यहां प्रकृति के रहस्यमय से लगते दृश्यांकन हैं, अदेखे, अनजाने से चेहरे हैं, विचित्र पशु-पक्षी हैं, फूल और विभिन्न वनस्पतियां हैं, रूपाकारों के नए से संयोजन हैं, जो अपने संसार के अंधेरे-उजालों में भावक को ले जाना चाहते हैं। देखने वाले को ठिठका लेते हैं।
यहां सांत्वना कम है, आश्वासन कम हैं, एक तटस्थ सी भूमि, मनोभूमि है। और यही चीज इन चित्रों को विलक्षण बनाती है। हमें सृष्टि एक नए रूप में दिखाई पड़ती है। खोया हुआ विस्मय लौटाती है। इनके बोध गहरे हैं और इनका सौंदर्य बिल्कुल अपनी तरह का है। कितना अच्छा है कि रवीन्द्रनाथ की कला में दिलचस्पी बढ़ रही है।