दिल्ली में नागालैंड के छात्रों के साथ भी इसी प्रकार से मारपीट की गई थी और हम सभ्य-सुसंस्कृत होने का दम भरते हैं। एक महान व सभ्य देश बनने का यह तो कोई तरीका नहीं है। ऐसे वक्त में तो नहीं, जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया हमें ‘दूसरों’ के साथ दंगा करने, नस्लीय भेदभाव करने वाले देश के तौर पर दिखा रहा है।
कथित तौर पर नाइजीरियाई छात्रों ने यहां एक भारतीय छात्र को ज्यादा मात्रा में नशीली दवाएं खिला दीं, जिससे उसकी मौत हो गई। नाइजीरियाई छात्रों के यहां आने से पहले ही दिल्ली-नोएडा-गुडग़ांव बेल्ट में ड्रग की समस्या पांव पसार चुकी थी। अफ्रीकियों का खान-पान पाश्चात्य ही होता है और वे लैंगिक समानता को प्राथमिकता देते हैं।
उधर डोनाल्ड ट्रम्प सरकार एच1बी वीजा के बहाने भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स को निशाने पर लिए हुए है। 70 के दशक में साइराक्यूज विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क में 200 घरों पर किए गए शोध में मैंने पाया उच्च शिक्षा, आय व अंतरराष्ट्रीय आवागमन के बावजूद दक्षिण एशियाई लोग अपनी पुरातनपंथी संस्कृति से ही चिपके हुए हैं। वे आपस में एकजुट रहते हैं व अश्वेत या श्वेत लोगों के साथ नपे-तुले संबंध रखते हैं।
उनका खान-पान, शादी-ब्याह सब अपने समुदाय तक ही सीमित है। हम अपनी देसी आदतों व खान-पान को नहीं छोड़ पाते और ‘दूसरों’ के प्रति नकारात्मक सोच रखते हैं। हालांकि सांस्कृतिक मतभेद और भेदभाव दुनियाभर में व्याप्त है लेकिन हमारा ऐसा करना सबको दिख जाता है।
कारण है हम सांस्कृतिक शुद्धता की कुछ ज्यादा ही परवाह करते हैं। हमें लगता है कि नाइजीरियाई हमारे जैसे क्यों नहीं हैं? हम देश के बाहर भी अपना ‘लघु भारत’ बना लेते हैं।