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ओपिनियन

भुलक्कड़ होने की हद

हमने कहा- नहीं! नहीं। चेहरा ही गिरा है। मोबाइल तो सुरक्षित है। श्रीमतीजी ने राहत की सांस लेते हुए कहा- कोई बात नहीं चेहरा तो और भी मिल जाएगा पर मोबाइल खो गया तो सौ झंझट।

Apr 06, 2017 / 04:39 pm

कल रात गजब हो गया। छापाखाना क्लब से घर आते वक्त रास्ते में कहीं हमारा ‘चेहरा’ गिर गया। तब तो कुछ पता ही न चला। घर आए और सो गए। सुबह उठ कर आईने में देखा तो हमारा चेहरा गायब था। घबराकर हमने अपने को अखबार की खबरों के पीछे छिपा लिया। 
हमेशा की तरह श्रीमती दो कप चाय लेकर हमारे पास आ बैठी। हम अब भी अखबार में छिपे चाय सुड़कते रहे। अचानक हमारे हाथ का अखबार सरका तो श्रीमतीजी जोर से चीखी- ये तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ? क्या मोबाइल की तरह फिर कहीं गिरा आए? 
हमने कहा- नहीं! नहीं। चेहरा ही गिरा है। मोबाइल तो सुरक्षित है। श्रीमतीजी ने राहत की सांस लेते हुए कहा- कोई बात नहीं चेहरा तो और भी मिल जाएगा पर मोबाइल खो गया तो सौ झंझट। एक तो सारे दोस्तों-रिश्तेदारों के नम्बर गायब। 
दूसरे पुरानी फोटो और मैसेज गायब। लेकिन चेहरा गिरा कहां। हमने अपराध भाव से कहा- कल शाम तक तो था। फिर न जाने क्या हुआ, रास्ते में कहीं गिर गया। श्रीमतीजी ने कहा- कहीं ऐसा तो नहीं क्लब की मेज पर ही छोड़ आए हो। तुम बड़े भुलक्कड़ हो। तुम्हें याद है छह महीने पहले तुम गुप्ताजी के घर गए थे और जल्दबाजी में अपना चेहरा वहीं छोड़ कर गुप्ताजी का उठा लाए। वो तो गुप्तानी तुरंत दौड़ी-दौड़ी आई। ऐसा करो। स्कूटर लेकर निकलो। अभी तो सुबह है। हो सकता है रास्ते में कहीं पड़ा मिल जाए। 
हमने कहा- ठीक कहा तुमने। बटुआ या मोबाइल गिरता तो उसके मिलने की संभावना नहीं थी पर चेहरा तो मिल ही सकता है। हम चेहरा खोजने निकले लेकिन हाय? उसे ढूंढ़ नहीं पाए। कोई दिलजला उठा कर ले गया या किसी सफाईकर्मी ने झाड़ कर कूड़ेदान में पटक दिया। 
अब हम नए चेहरे की तलाश में हैं। नेट पर आर्डर दिया है। आते ही लगा लेंगे। नए चेहरे के साथ एडजेस्टमैंट बिठाने में कितनी परेशानी होगी। सोचते ही कंपकंपी मच जाती है।

व्यंग्य राही की कलम से 

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