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भारतीयों के विदेशों में बसने के फायदे कम नहीं

सामयिक: दोहरी नागरिकता पर गंभीरता से विचार करना है वक्त की जरूरत

Sep 30, 2022 / 10:24 pm

Patrika Desk

प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

प्रणय कोटस्थाने
डिप्टी डायरेक्टर, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
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रितुल गौड़
एंगेजमेंट मैनेजर, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
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केन्द्र सरकार ने संसद के मानसून सत्र में जानकारी दी थी कि तीन वर्षों में करीब चार लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है। इसके कारण निजी बताए गए थे। भारत के लोगों का दूसरे देशों में जाकर बसने का लम्बा इतिहास रहा है। यह चाहे आजादी से पहले सुदूर द्वीपों में बंधुआ मजदूर के रूप में हो या आजादी के बाद बेहतर शिक्षा और नौकरी के अवसरों के रूप में। नागरिकता छोडऩे वालों की हाल में बढ़ी संख्या के पीछे वजह कोविड-19 के कारण बैकलॉग के आवेदनों को सरकारों द्वारा स्वीकारना, अन्य देशों का आव्रजन नीतियों में बदलाव और भारत में दोहरी नागरिकता का प्रावधान न होना हैं। कहने की जरूरत नहीं कि पर्सन्स ऑफ इंडियन ओरिजिन (पीआइओ) कार्डधारकों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
एमग्रेशन यानी विदेशगमन के भारत पर आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को समझने में प्रख्यात राजनीतिक विज्ञानी देवेश कपूर की किताब ‘डाइऐस्पर, डवलपमेंट एंड डेमोक्रेसी: द डोमेस्टिक इम्पैक्ट ऑफ इंटरनेशनल माइग्रेशन फ्रॉम इंडिया’ (2010) से काफी मदद मिलती है। कपूर दावे से कहते हैं कि प्रवासी भारतीयों का आर्थिक क्षेत्र में योगदान मिश्रित रहा है जबकि राजनीतिक प्रभाव काफी हद तक सकारात्मक रहा है। विदेशगमन के आर्थिक प्रभाव की बात करें तो पश्चिम एशिया में गए अकुशल कामगारों के प्रवास का असर सकारात्मक हुआ। न केवल उनके लिए जो परदेस गए बल्कि उनके लिए भी जो यहीं रह गए थे। विश्व बैंक के अनुमानों के अनुसार 2021 में अनिवासी भारतीयों ने 87 अरब डॉलर की रकम देश में भेजी। विदेशों से धन भेजने के मामले में भारतीय सबसे आगे रहे थे। इसके विपरीत, पश्चिमी देशों में गए उच्च-कुशल बौद्धिक वर्ग के लोगों के विदेशगमन के आर्थिक प्रभावों को एक से अधिक अर्थों में समझा जा सकता है। सकारात्मक पक्ष में, इन भारतीयों की सफलता से दुनिया में भारत व भारतीयों की छवि सुधरी है। नकारात्मक पक्ष में, शिक्षित लोगों के जाने का अर्थ है कि प्रतिभा पलायन से उनकी उत्कृष्टता भारत के काम नहीं आ सकी।
राजनीतिक असर को देखें तो दो सकारात्मक पक्ष हैं। पहला पक्ष, वापस लौटने वाले भारतीयों और उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान ने उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति प्रतिबद्धता को मजबूत करने में मदद की है। हालांकि, किताब के प्रकाशन के बारह वर्ष बाद ये दावे कमजोर लगते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रवासी भारतीयों और मातृभूमि के बीच संबंधों में लचीलापन हमेशा रहा है। कोविड-19 की दूसरी लहर में इन लोगों ने व्यक्तिगत और समुदाय के रूप में जो मदद की, मदद के वास्ते अपनी सरकारों पर दबाव बनाया, वह काबिले-तारीफ है। दूसरा पक्ष यह कि विदेशगमन ने उच्च-जाति के प्रभुत्व वाले वर्ग के लिए ‘प्रेशर रिलीफ वॉल्व’ के रूप में काम किया।
अंतिम रूप से, विदेशगमन का उच्च स्तर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का लक्षण है। शोध बताते हैं अर्थव्यवस्था के एक निश्चित ऊंचाई हासिल करने तक विदेशगमन जारी रहता है और अर्थव्यवस्था में तीव्र वृद्धि का अर्थ होगा हर आय वर्ग के भारतीय के लिए ज्यादा अवसरों की उपलब्धता।
अब बड़ा सवाल, क्या हम भारतीयों के विदेशों में बसने को लेकर कुछ ज्यादा कर सकते हैं? एक ओर वे लोग हैं जो परदेस में बस चुके हैं तो दूसरी ओर वे जो जाने वाले हैं या जाना चाहते हैं। जो लोग परदेश में बस चुके हैं, उनका विदेशी पासपोर्ट को छोडक़र भारत लौटना कठिन है। सम्भाव्य समाधान होगा दोहरी नागरिकता पर गंभीरता से विचार, एनआरआइ/पीआइओ को निवेश में आसान अनुमति और उनके साथ अच्छे रिश्ते। जिन्होंने अभी विदेशी नागरिकता नहीं ली है, उनके साथ सामाजिक सौहार्द बनाने, भरपूर आर्थिक अवसर मुहैया कराने व उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने की जरूरत है। हमारा फोकस दूसरी श्रेणी के लोगों पर होना चाहिए। कई खामियों व पाबंदियों के चलते देश में प्रवेश नहीं पाने वाले मेडिकल छात्र और खराब बिजनेस, कर व नीति संबंधी परिवेश से परेशान हाई नेट-वर्थ वाले लोग भी इनमें शामिल हैं। जब तक हम इन मौलिक चुनौतियों का समाधान नहीं करते, स्वदेस जैसी फिल्में हमारी आंखों में आंसू तो ला सकती हैं, पर धरातल पर बहुत कुछ नहीं बदल पाएंगी।

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