सीबीआइ अदालत के फैसले से भाजपा को हिंदुत्व का एजेंडा और मजबूती से चलाने की संजीवनी मिली है, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चौथी बार सरकार बनाने का रास्ता साफ होने का आश्वासन भी। यह गठबंधन अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के मामले को भी मुद्दा बनाए तो कोई आश्चर्य नहीं। भाजपा भावनात्मक मुद्दों पर मतदाताओं को रिझाने में कभी पीछे नहीं रही। सुशांत केस में महाराष्ट्र सरकार का कथित गैर-जिम्मेदाराना रवैया और बिहार सरकार की सीबीआइ जांच के लिए पैरवी नीतीश के पक्ष में आ सकते हैं। खैर, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के पास ही चुनावी मुद्दों की कोई कमी नहीं है। 2015 के विधानसभा चुनाव के बजाय विपक्ष इस बार पूरी तरह अलग तेवर लिए होगा।
हालांकि भाजपा के अधिकांश पारम्परिक चुनावी मुद्दे जैसे राम मंदिर निर्माण, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, सीएए, समान नागरिक संहिता आदि अब उसके तरकश से निकल चुके हैं। इनमें से बहुत से मुद्दों पर जद(यू) भाजपा से अलग राय जता चुकी है, जो गठबंधन के बीच मतभेद का कारण भी रही।
भारतीय राजनीति के लिए कहावत है, ‘जाति नहीं जाती भारतीय चुनावों में।’ हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार के कई युवा मतदाताओं ने जातिगत वोट परम्परा को दरकिनार कर मोदी को चुना था, लेकिन इस बार बिहार के विधानसभा चुनाव को लेकर कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। यह भूलना नहीं चाहिए कि नीतीश कुमार राज्य के मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के हरसंभव प्रयास कर चुके हैं।